लाल लिपिस्टिक



लाल लिपिस्टिक

(दोस्तों ! पेश है आपके मनबहलाव के लिए हमारा एक मनगढंत अफ़साना ...जिसका किसी जिंदा ओ
मुर्दा शख्शियत या जगह से कोई ताल्लुक नहीं है )

क्या जमाना आ गया है ...गोया किसी से अपनी बात तक नहीं कह सकते . लोग जाने क्यों बात का बतंगड़ बना देते हैं ...

तबसरा करने से पहले हम मुआफ़ी के साथ अर्ज करते हैं कि जनाब को उर्दू नहीं आती ...अलिफ़ बे से आगे न हम पढ़ पाये और न अब्बा हुजूर नें हमें मक़तब भेजने पर जोर दिया .

मौलाना हुजूर जो हमारे उस्ताद हुआ करते थे गोया
शतरंज के बड़े शौक़ीन थे ...और रोज़ दोपहर बाद
अपना मक़तब बढ़ा कर ...हमारे दीवानखाने में तशरीफ़ ले आते थे और फिर अब्बा हुजूर के साथ उनका वो शह और मात का खेल शुरू होता की शतरंज के खिलाड़ी लिखने वाले प्रेमचंद उर्फ़ नवाब राय भी शरमा जांय ....
हर घंटे नाश्ते पानी का इंतजाम करो . हमारी अम्मी
भीतर से कुड़बुड़ाती रहतीं ...कभी कभी इतने ऊंचे
बोलतीं कि आवाज़ दीवानख़ाने तक पहुँच जाती थी  लेकिन अब्बा हुजूर इस तरह कान में तेल डाले रहते
गोया बहरे हो गये हों .....
हमारे उस्ताद तो बहरे थे ही ....उनके मक़तब में किताब खोले बच्चे सबक घोंघ रहे होते और हुजूर खुरपी को बरफ़ी समझ डंडा घुमा देते ...
हमारे उस्ताद नें कई बार अब्बा हुजूर से फ़रमाया कि
लड़के को पढ़ाओ लिखाओ ताकि तालीमी इदारे में उठक बैठक कर सके .....लेकिन अम्मी की बात पर
जैसे वो कान में तेल डाले रहते ...उसी तरह उनकी भी किसी बात पर हमने भी कान नहीं दिया ....
तीन दर्जे पढ़ कर तौबा कर ली और पंदरह साल की उमर में छत पर खड़े पेंच लड़ाया करते थे .

इकदिन खिचड़ी का त्यौहार था ...अखाड़े में कई नामी गिरामी पहलवान हाथ आजमाने आये थे . अम्मी ..बहनों को साथ ले गंज में खिचड़ी मेला
देखने गईं और हम छत पर पेंच लड़ाने लगे ...तभी हमारी खूबसूरत मंहगी पतंग कट गई और हवा में तैरती बहुत दूर चली गई ...मगर हवा का ऐसा रुख बदला कि वो उड़ कर वापस हमारे पड़ोसी की छत पर से होती हुई आंगन में जा गिरी ....

उमर तो हमारी पंदरह बरस हो गई थी ...मूंछें भी निकल रही थीं ...बदन भी माशाअल्ला बड़ा तंदरुस्त था और अम्मी अपने भाई के सिफाखाने से कोई न कोई ताकत का नुस्ख़ा लेकर आती ही रहती थीं ....
अब्बा हुजूर और हम पर बराबर अजमातीं ....अब्बा पर तो कोई ख़ास असर दिखता न था लेकिन हम पर तो दिखता और क्या खूब दिखता ....
उस उमर तक हमें औरत मरद के रिश्तों और प्यार मोहब्बत का कोई इल्म न था ...चुनांचे हम बचपन की तरह पड़ोसियों के घर में बेधड़क घुस जाते .....

और अपनी खूबसूरत मँहगी पतंग के चक्कर में उस दिन भी घुस गये .....और हमनें वहां जो देखा ...उसे
अगर यहाँ लिख मारा तो सादत हसन ' मंटो ' की
काली सलवार शरमा जायेगी ....और हम दिल से नहीं चाहते कि गोया उस वक्त जो मंटो का दुनियावी हाल हुआ ...वो हमारा हो जाए ...बाद में मंटो .......
मशहूर हुए लेकिन जो बदनामी झेल और गालियाँ खा करके वे कब्र में सो रहे हैं ....चुनांचे हमारे अंदर वो ताब नहीं कि उनका मुकाबिला कर सकें ....
सो आगे अरज किया कि ....हमनें जिंदगी में पहली बार अपने पड़ोसी के घर में एक बीस साल की नंगी
औरत देखी ...जो बिस्तर पर पड़ी थी और अपना बदन खुद ही नोचे डाल रही थी और मुँह से अजीब अजीब आवाजें निकाल रही थी ......
और हम बुक्का फाड़े बेवकूफों की तरह ..उसे देख रहे थे ...अचानक उसकी नजर हम पर पड़ी ...वो हमें देख वो मुस्कुराई और बदन ढापने की कोशिश भी न की .....उसकी मुस्कुराहट में हमें उसकी लाल
लिपिस्टिक के आगे कुछ भी न दिखा ....
उसे अपनी ओर देखता पा कर हम आंगन में पड़ी पतंग उठा कर वापस अपने घर आ गए ....
हम घर तक आ पहुंचे फिर छत पर जा पहुंचे और पड़ोसी के घर का आंगन देखने लगे ......
उस लाल लिपिस्टिक को नंगी देख ...हमारे अंदर से
कुछ ऐसा लगा मानो कोई दबी चिंगारी ....सुलग उठी हो ....

एक दिन मौलाना हज़रत मियां हमारे घर पर तक़रीर करने पहुंचे ....और हमारे शाइस्ते नें पूरे मोहल्ले में घूम घूम कर इसकी इत्तला कर दी और न्यौता दे आया .....
दीवानखाने को दो हिस्सों में बांटा गया और बीच में परदा लगा दिया गया ...मरद एक तरफ और औरतें
एक तरफ ....तक़रीर शुरू हुई .......
उस तक़रीर का कोई लब्ज़ हमारी समझ में न आया
हम पहलू बदलते रहे ......हमारे सामने जफ़र मियां
हज्ज़ाम ...क़व्वालों की तरह पैरों पर बैठे थे गोया नमाज़ पढ़ रहे हों ....और हम नीचे बिछी दरी ...जो
हमारे पुरखों के ज़माने की थी ...उसमें से धागे उधेड़ने लगे . दो हाँथ के दो धागे उधेड़ कर उसे रस्सी की तरह बट दिया ...अगल बगल बैठे हजरात तक़रीर सुनने में इतने मगन हुए कि उनका ख़याल ही इस तरफ न गया कि हम कर क्या रहे हैं ...और फिर हमने वो रस्सी ...धीरे से सामने बैठे हज्ज़ाम मियां के पैरों में इस तरह बांधी कि हज़रत को पता ही नहीं चला ...
तकरीर अपने अंजाम तक पहुंचना चाहती थी और हम बैठे न रह सके ...सो उठ कर चल दिये ...अब्बा
हुजूर नें हमें एक कड़ी नज़र से देखा जरूर लेकिन कहा कुछ नहीं ....और हम ओसारे में बैठ कर बाहर
देखने लगे कि वक्त गुजारने का कोई ज़रिया हाथ लगे ......
इधर हज्ज़ाम मियां जैसे ही उठ कर खड़े हुए .....
धड़ाम से मुंह के बल इतनी जोर से गिरे कि उनके आगे के दोनों दांत टूट गए ...अफरातफरी का माहौल बन गया ......
बात आई गई हो गई ....काफी देर हो चुकी थी सो हमारे पेट में चूहे कूदने लगे ...और हम अम्मी के पास पहुंचे .........वहां वही पड़ोस की बीस साला
खातून बैठी थीं जिन्हे हमने बिना कपड़ों के देखा था
हमारी अम्मीजान नें हमारी बात सुनी और थोड़ा वक्त मांगा और हम वहीं बैठ गए ....
अम्मीजान उस खातून से घुट घुट कर बातें कर रहीं थीं और उनकी बातों से हम सिर्फ़ इतना ही जान सके कि तीन साल पहले उस खूबसूरत औरत की शादी हमारे पड़ोसी नंगे मियां के साथ हुई थी .....

नंगे मियां यही कोई पचीस साल के लप्पूझन्ना आदमी थे ...गोया इतने दुबले कि फूंक मार दो ....
...उड़ जायें .पहले कहीं और रहते थे . किसी सरकारी महकमे में नौकर थे ...बदली हुई तो तीन महीने पहले हमारे पड़ोस का खाली पड़ा मकान किराये पर लेकर रहने लगे ....

वह औरत इतनी हसीन थी कि हमें किताबों में देखी उन खूबसूरत औरतों की याद आ जाती जो सिनेमा की हीरोइनें हुआ करतीं थीं ...बार बार वो हमें कनखियों से देख मुस्कुरा देती थी और हमें उसके चेहरे की लाल लिपिस्टिक के अलावा कुछ दिखता
नहीं था ...उसने फुसफुसाकर हमारी अम्मीजान के कान में जाने क्या कहा ....अम्मी सिर्फ मुस्कुराई और
सिर हिला दिया ...
वो औरत उठी और अम्मी फ़ारिग होकर हमें साथ ले दस्तरख़ान पर जा बैठीं ..उन्होंने बड़े प्यार से हमें खाना खिलाया और बोलीं ...." पड़ोस में चला जाया कर ..पड़ोसियों से मेलजोल रखना अच्छा होता है ...
...उसका कोई काम वाम हो तो वो भी हांथ बंटा दिया कर ....तेरे अब्बू को तो अपनी महफिलों से फुर्सत नहीं और मुझे घर से ...फिर अब्बू ये काम कर भी नहीं सकते ..."

चुनांचे हम शाम को अपनी पड़ोसन के घर गए ..
उसका मरद अपनी किसी रिश्तेदारी में गया था .
उसने हमें देखा और खुशी से उछल पड़ी और ढेर सारा मीठा नमकीन ला कर हमारे सामने रख़ दिया और एकदम सट कर बैठ गई ...न जाने क्यों हमें उसका इस तरह बैठना बहुत अच्छा लग रहा था .
अपने हाँथ से बरफी उठा कर हमारे मुँह में डालती और उसके उभारों की टोंच हमें साफ महसूस होती .
उसने हमें खिलाया पिलाया ...और हमारे गाल का चुम्मा लिया ...उसकी लाल लिपिस्टिक को उसी के दुपट्टे से पोंछ ...हम वापस लौटे ...

इधर उधर से घूम घाम कर अभी हम घर लौटे तो देखा वो फिर अम्मी के साथ बैठी थी ...

उस रात खाना खा कर हम अपनी अम्मी के हुक्म की तामील करने उसके घर सोने गए .
हम घोड़े बेच कर सोते थे और आधी रात को मीठी शरदी के दिन रजाई के अंदर एक पुरसुकून गरमी का अहसास हुआ .....
वो हमारी बगल में उस दिन की तरह बिना कपड़ों के लेटी थी और उस रात हमने पहली बार जमीन पर जन्नत का नज़ारा किया ...

फिर तो ऐसा हुआ कि ये जन्नत का नज़ारा हमें रोज़ ही होने लगा ...और फिर कुछ दिन बाद उसके घर नन्हे बच्चे की किलकारियां गूंजने लगीं ...नंगे मियां
उड़ते फिरते थे और इतने खुश थे ...गोया इससे ज्यादा खुश रहा ही नहीं जा सकता ...
और नफ़ीसा ...यही नाम था उसका , हमसे दूर दूर रहने लगी . नंगे मिया का तबादला कहीं और हो गया और नफ़ीसा अपने शौहर के साथ चली गई .

छह साल बाद जब वो एक दिन शहर किसी रिश्तेदारी में आयी थी ...तो हमारे घर भी आयी ....
उसके साथ उसका छह साल का लड़का था जो बड़ा शरारती ...खूबसूरत और चुलबुला था ...

अब तक हम औरत और मरद के रिश्तों को बखूबी जान और समझ चुके थे ...अम्मी के पास से उठ कर वो बाहर आयी और ओसारे में हमें अकेला देख कर रुक गई ...उसका लड़का उसके आगे कूदता फांदता अपनी मोटर में जा बैठा और वो हमें देख एक  दिलफरेब हंसी हंस कर सिर्फ इतना बोली ....देख
लो अपने लड़के को छह साल का हो गया है.....

सर्वाधिकार सुरक्षित ....
अरुण त्रिपाठी " हैप्पी अरुण "

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