कहानी ...कभी मैंने भी लिखी थी !

( प्रस्तुत कहानी काल्पनिक है ...किसी भी व्यक्ति और स्थान से इसका कोई संबंध नहीं है .) 
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कहानी की खोज में ....मैं घर से निकला . अक्सर वो मुझसे यूँ ही मिल जाती थी और मेरे साथ मेरे घर आ जाती थी . उसे मेरे साथ देख कर भी कभी मेरे घरवालों को मुझ पर संदेह तक न होता .....
मैं राइटिंग टेबल पर बैठ उसे सजाता सँवारता और दुनिया के सामने रख देता ...वो मेरी रचना थी . बहुत सारे लोग उसे देखते ...पसंद करते और खट्टे मीठे कमेंट करते ...लेकिन मजाल थी जो वो कहीं रुक जाती . दूसरे ही दिन मैं उसे फिर खोजने बाहर निकलता और किसी न किसी रूप में वो मुझे मिल ही जाती ...
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आज मैं उसकी तलाश में घर से बाहर निकला .
मेरे घर से आधा किलोमीटर दूर सघन अमवारी में नीली नदी के किनारे , घुमंतू जनजातीय लोगों का  कबीला वहीं अपना डेरा डाले था ...आधा दर्जन कपड़े और पॉलीथीन से बने टेंट थोड़ी थोड़ी दूर बने थे ...मैं घूमते घामते वहाँ जा पहुँचा आसपास पेंड़ो पर नाक में नकेल डाले तंदरुस्त भैंसे बंधे थे ...कुछ दूरी पर भैंसें भी बंधी थी . बकरा ..बकरी ...मुर्गे ...मुर्गियाँ भी कम नहीं थे .
अचानक ....
मेरी नजर कहानी पर पड़ी ....
वो भट्ठी से " महुवा " खींच रही थी ....
सांवला रूप ...तीखे नैन नक्श और हिरनी जैसी बड़ी बड़ी आँखों वाली वो सुंदरी अभी किशोरावस्था से निकल जवानी की दहलीज पर कदम रख रही थी .....
मैने उसकी तरफ कदम बढ़ाये तो एक खूंखार कुत्ता मेरी तरफ दौड़ा ...
उसने कुत्ते से जाने क्या कहा ...?
वो पूँछ हिलाने लगा !

मैं उसके पास पहुंचा ...
वो सवालिया नजरों से मुझे देखने लगी ...
मैं बोला ...देसी अंडा मिलेगा ?
मिलेगा ...वो बोली .
उबला ?
पाँच का एक मिलेगा ...उसने मेरी आँखों में झांकते हुए कहा .
दारू के साथ मिलेगा ? ....मैंने कहा .
हाँ ...मिलेगा लेकिन दिन डूबने के बाद अकेले आना ...? ...उसने नजर घुमा कर कहा .
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गोधूलि बीती और जब चन्द्रमा की आभा बिखरने लगी ...तब मैं अमवारी में पहुँचा .

उसने मुझे ढाक के पत्ते पर तीखी चटनी के साथ छह अण्डे परोसे और महुआ फूल की एक बोतल ...मिट्टी के कुल्हड़ और पानी के साथ पेश की .

मैंने खाना पीना शुरू किया ...धीरे धीरे नशा चढ़ा तो मेरी कहानी मुझे और खूबसूरत लगने लगी .
दो घंटे के बाद नशे में झूमता मैं घर लौटा ...
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मैं भग्यशाली था जो ब्राह्मणों के गाँव में रहता था 
उस गाँव में मेरे जैसा साइलेंट ड्रिंकर कोई नहीं था , इसी कारण अमराई में मैं अकेला पियक्क्ड़ था .

...मेरे पिता पंडिताई करते थे ...खेती बारी भी थी .मैं अपने सात भाई बहनों में मझला था . दो बड़े भाई सरकारी नौकरी करते थे और उनका परिवार उनके ही साथ रहता था ...उनकी एकमात्र जिम्मेदारी थी ...छोटे भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई का प्रबंध करना ....

मैं उस समय बी ए कर रहा था और बीमा एजेंट था ...कहानी की तलाश ...मेरा शौक  . मेरा खर्चा ...मेरी एजेंसी उठा लेती .....लेकिन बहुत चीजों के लिए आजभी मैं अग्रजो पर निर्भर था 

हॉस्टल की जिंदगी में कभी कभी दारू पी लेता था ....
घर का माहौल ...धकमपेल और छीनाझपटी वाला था ....
कौन आया ? कौन गया ? खाया ? नहीं खाया ?
कहाँ सोया ? कहाँ गया ?....इन सवालों से परिजनों का कोई संबंध नहीं था .

पिता जी जाने माने पंडित थे ...कथा भागवत से छुट्टी नहीं पाते थे ...विरक्त जीव थे और घरेलू प्रपंचो से पूर्णतः अनभिज्ञ रहते थे .

मैं खा पी कर नशे में मस्त चुपचाप ओसारे के बगल वाली कोठरी में सो जाता . मेरे बिस्तर पर मेरे साथ मेरा छोटा भाई सोता था वो सातवीं में पढ़ता था और घोड़े बेच कर बड़ी गहरी नींद सोता था . मेरा भोजन एक थाली में परोस कर और दूसरी से ढँक कर, पानी सहित . ...मेरे तख्ते के किनारे टेबल पर रखा रहता .

उस समय दशहरे की छुट्टियां चल रहीं थीं ...दीवाली के बाद मुझे वापस जाना था ....
और मेरी कहानी मुझे मिल गई .
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खैर... मैं रोज शाम को अमराई में पहुंचता ...आज एक सप्ताह हो गए थे मुझे प्रतिदिन अमराई आते ....अब वो कहानी मुझे दस्तरखान पर बिठा गायब नहीं होती थी ...सामने ही बैठी रहती और कभी कभार शाकी भी बन जाती .

आज मेरा अमवारी का आठवां चक्कर था ....  
उस रात वो मेरा हमप्याला बनी ...
इस तरह शराबनोशी हुई तो छह की जगह आठ अंडे मिले ...दो अंडे फ्री थे लेकिन उन्हें मेरी कहानी खा गई ...साथ में मेरा भी एक खा गई .

पीने पिलाने में रात गहराई और चंद्रमा के अस्त होते ही ...अमराई में अंधकार का साम्राज्य उदित हो गया ...
चारो तरफ झींगुरों की आवाज सुनाई दे रही थी .उसी समय बगल वाले टेंट से धीमी सिसकारी सुनाई दी जो धीरे धीरे तेज होती गई ...मेरे बदन में चीटियां रेंगने लगीं ....
यकायक मिट्टी के तेल की ढिबरी बुझ गई ...
सुबह चीटियों के कलरव ने मेरी आंखे खोलीं ...
झटपुटा अंधेरा था .....
मेरी कहानी ...निर्वस्त्र मेरी बाहों में थी .

मैंने उस सोती सुंदरी को सोता छोड़ ....अपने घर की राह पकड़ी . अब हुश्न और इश्क की ये जुगलबंदी रोज होने लगी . ..
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जिस दिन मुझे हॉस्टल लौटना था ...उसके एक दिन पहले दोपहर में मैं अपनी कहानी को देखने गया .....
शाम को पिताजी का आगमन था ...आज रात मैं अमराई में नही बिता सकता था और दारू तो पी ही नहीं सकता था ...
मेरी कहानी का कुनबा अपना लावलश्कर समेट कहीं और बसने की तैयारी में था ....भैंसा गाड़ी में बैठी मेरी कहानी मुझे हसरत भरी निगाहों से देख रही थी ...उसकी कोरों से दो बूँद आँसू टपके और उसने मुँह फेर लिया ...
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अगले दिन मैं हॉस्टल आ गया . उसी वर्ष मैं स्नातक हो गया ...और साल भर बाद ही मैं पी सी एस हो गया ...
नौकरी से लगा तो साल भर बाद ही मेरी शादी हो गई ..परन्तु मैं तो हल्की फुल्की कहानियां पसंद करता था और मेरी शादी हुई प्राचीन इतिहास से और मैं इतिहासकार तो था नहीं ....
मेरी इतिहास हमेशा रामायण ...महाभारत काल में ही जीती थी और प्राचीन इतिहास का जीवित प्रमाण थी . हद दर्जे की संस्कारी ..धार्मिक और सफाई पसंद थी ...कहानी की तरह मेरे साथ दारू तो हरगिज नहीं पी सकती थी .
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दिन बीते ...बरस बीते और कुम्भ के मेले में मेरी ड्यूटी ...मेला अधिकारी के पद पर लगी . अब तो मुझे अपनी कहानी की याद भी नहीं आती थी रोटी दाल और दुनियादारी ने मुझे उसकी याद आने भी न दी .

उस दिन ....
सुबह सुबह अपने मेला क्षेत्र का मुआयना करने मैं अपनी सरकारी जीप खुद ड्राइव करता घूम रहा था ....
एक स्थान पर दो आदिवासी औरतें लड़ती हुई दिखीं ...दोनों जाने किस बात पर झगड़ रही थीं .
नौबत झोंटानोचउवल की आती ...इससे पहले मेरी जीप रुकी और वे शांत हो गईं ..
मैं जीप से उतर झगड़े की वजह जानने का उत्सुक हुआ ...
मैंने उनमे से एक औरत को अपनी ओर टकटकी लगा देखते पाया ...आँखे चार हुईं ...उसकी आँखों में पहचान का भाव उभरा और वो औरत बाउ ..बाउ करती लोक लाज छोड़ मुझसे लिपट गई और जोर जोर से रोने लगी ...
मैंने उसे ध्यान से देखा ....अरे ! ये तो मेरी कहानी है ...
मैं भी भावुक हो गया . उसे जीप में बैठा कर मैं उसके टेंट में आया ...एक मजबूत कद काठी का बीस साल का जवान टेंट के खूंटे को ...हथौड़े से ठोंक रहा था .
मेरी कहानी बोली ...बाउ ! ये है आपके प्रेम की निशानी ...बड़े दुलार से पाला है मैंने इसे . आप के अलावा मैंने कभी किसी के साथ महुआ नहीं पी .
इतने दिनों बाद मुझे अपनी कहानी का बाई प्रोडक्ट मिला . अब उसके प्रति मुझे अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ ...
मुझे अब अपनी कहानी की देखभाल भी करनी थी ...इतिहास का डर न होता और कहानी राजी होती तो मैं उसके लिये कुछ भी करने को तैयार हो जाता ...
मैं चुपचाप सबसे छुप कर अपनी कहानी की हर जरूरत पूरी करता रहा ...
तभी तो आज तक कोई न जान सका कि इतिहास पढ़ने के पहले ...मैंने कोई शानदार कहानी लिखी थी .

समाप्त ...
© अरुण त्रिपाठी  ' हैप्पी अरुण '

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