मीठा मिरचा ( भाग -1 )

( कथा काल्पनिक किन्तु किंचित सत्य भी है )
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पंडित सीताराम ' शास्त्री ' ...एक प्रसिद्ध कर्मकांडी पंडित थे . उनके परिवार में एक पुत्र एक पुत्री और उनकी पत्नी थे और ये छोटा परिवार एक अविभाजित ...सम्मिलित परिवार का एक हिस्सा था और इस संयुक्त परिवार के पास मात्र तीन एकड़ कृषि योग्य भूमि थी .
परिवार मैं सबसे बड़े पंडित सीताराम जी परिवार के मुखिया थे ....उन्होंने अपने पिता पंडित दीनानाथ को उनकी मृत्यु शैया पर वचन दिया था कि वे आपनें दोनों भाइयों का पुत्रवत ख्याल रखेंगे और अपने जीते जी परिवार का बँटवारा नहीं होने देंगे .
उनके नेतृत्व में उस " ब्राह्मण परिवार " की समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी . पंडित जी की ' यजमानी ' बीस कोस तक फैली थी .कोई बिरला दिन ही होता था जब वे अपने घर पर भोजन करते हों . उनका ' पौरोहित्य कर्म ' उन्हें खूब देता था .....अति व्यस्तता के कारण वे अपनी इतनी लम्बी यजमानी अकेले नहीं संभाल सकते थे .....इस कारण वे अपने छोटे भाई पंडित राधेश्याम " शास्त्री " को हमेशा सहयोगी के रूप में अपने साथ ही रखते थे .
सबसे छोटे भाई तहसील में " दस्तावेज़ लेखक " थे और खेती बारी संभालते थे . इसप्रकार वो संयुक्त परिवार खुशहाल था और किंचित सम्पन्न भी .
एक दिन पंडित सीताराम अपनी साईकिल पर ढेर सारा सामान और रजाई गद्दा लादे आए और चौकी पर बैठ कर ....हाँथ मुँह धो खड़े भी न हो पाए थे ....कि मुँह के बल गिरे और मर गए .
.............................................................. परिवार सहित पूरे गांव जवार में हाहाकार मच गया . पंडित जी की तेरहवीं बड़े शानदार तरीके से संपन्न हुई और लोगों ने बढ़ चढ़ कर सहयोग किया .
पंडित जी के स्वर्गवासी होने के बाद उनके छोटे भाई पंडित राधेश्याम नें यजमानी संभाली . उसी वर्ष स्वर्गीय पंडित जी के पुत्र " रमन " नें इंटर की परीक्षा अच्छे अंको से उत्तीर्ण की . आगे की पढ़ाई के लिए वह " शहर " जाना चाहता था और यह बात उसने अपनी माँ को बताई . परिवार में चर्चा चली तो स्वर्गीय पंडित जी के दोनों छोटे भाइयों नें अपने हाँथ खड़े कर दिए .
अब सवाल होनहार बेटे के भविष्य का था सो माँ नें अपने भाइयों से संपर्क किया और परिजनों के पुरजोर विरोध के बावजूद अपने पुत्र का एडमीशन ....गांव से बीस किलोमीटर दूर ...शहर के एक नामी " डिग्री कॉलेज " में करवा दिया.....
.....और " परिवार " में " दरार आ गई .
रमन की छोटी बहन " संज्ञा " अभी केवल दस साल की थी और स्थानीय विद्यालय में चौथी क्लास में पढ़ती थी . रमन अठारह का हो चला था और उसे अपनी जिम्मेदारियों का पूर्वाभास होने लगा था . परिवार में दिन प्रतिदिन चौड़ी दरार उससे छिपी न थी  और वह किशोर अपनी जवानी की दहलीज़ पर ही .....बूढ़ो की तरह सोचने के लिए विवश हो गया .
एक दिन घर की महिलाओं में " बिल्ली दूध कैसे पी गई " के मुद्दे पर महासंग्राम शुरू हो गया . बात बढ़ती गई और घर का बंटवारा हो गया .

पंडित सीताराम ' शास्त्री ' का अपने पिता को मृत्युशैया पर दिया गया वचन पूर्ण हुआ कि वे अपने जीते जी परिवार का बंटवारा नहीं होने देंगे 
और अब वे मर गए थे सो " बंटवारा " सुनिश्चित हो गया ..
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निर्धारित दिन पंचो के सामने अनाज , बरतन , बेलन ,
कलछी समेत हर चीज का ....जमीन सहित बंटवारा हुआ और पंडित सीताराम नें जिस प्रेम से अपने परिवार को संगठित किया था ...उसी के जवाब में उतनी ही नफरत के साथ उनके भाइयों नें उनकी मृत्यु के साल भीतर ही ......उन्हीं के परिवार को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका .
गांव के पुस्तैनी मकान में " रमन " का हिस्सा ही नहीं लगा और दोनों भाइयों ....राधेश्याम और दस्तावेज लेखक नें वह घर आधा आधा बाँट लिया ....बाँटा क्या वे दोनों तो एक ही में थे . बांटा तो उन्होंने केवल अपने बड़े भाई स्वर्गीय पंडित सीताराम ' शास्त्री ' को ही था
रहने के सवाल पर ...गांव के बाहर बनी खड़ंजे की सड़क के किनारे अधबने मकान और उसके साथ लगे एक एकड़ खेत के साथ स्वर्गीय पंडित का परिवार अलग हो गया .
आंचल को सिर पर ढांप ....भरी भरी आँखों से अपने पंडित की घर की चौखट चूम कर पंडिताइन बुदबुदाई
चाहती तो थी मैं कि इस चौखट से मेरी अर्थी निकले लेकिन पंडित तुम दगा कर गए....अब हम भी चलते हैं और वे रोती हुईं अपने नए घर को चली गईं .
अब " रमन " नें अपनी गृहस्थी संभाली . उसकी गृहस्थी में एक अधबना मकान जिसमें बाहर का ओसारा और ड्योढ़ी ही थे ....मकान की सफाई तक न हुई थी यहाँ तक कि सहन दरवाजे के अलावा घर में कोई दरवाजा ही न था . मात्र दस हजार रूपए जो उसे कुछ सामान छोड़ देने की एवज में मिले थे और इसी के बल पर अब उसे जिंदगी का महासंग्राम लड़ना था .
अब उसने शहर में किराये पर लिया वो कमरा जहां रहते हुए .....पढ़ लिख कर वो बड़ा अधिकारी बनने का सपना देखा करता था ....छोड़ दिया और अपने पिता की साईकिल से ही बीस किलोमीटर आने और जाने लगा .
अब उसकी जिंदगी के मैच का पहला राउंड शुरू हो चुका था और जिंदगी ने पहली चाल चलते हुए पासा फेंक दिया था .......
अब बारी " रमन " की थी .
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क्रमशः जारी




Comments

Anil. K. Singh said…
" हम होंगे कामयाब एक दिन " कहानी अच्छी है। अभी तक सब अच्छा है। आगे का अगले अंक में देखें गे। बहुत अच्छा।
Anil. K. Singh said…
" हम होंगे कामयाब एक दिन " कहानी अच्छी है। अभी तक सब अच्छा है। आगे का अगले अंक में देखें गे। बहुत अच्छा।