भाग्योदय ......( समापन भाग )

गतांक से आगे .....
......उसी जेल की तेरह नम्बर बैरक में प्रसिद्ध खूँखार बदमाश " टोनी ब्रिगेंजा " बंद था . उसका पेशा था ....
......रंगदारी . उस पर दर्जन भर कत्ल और फ़ौजदारी के अलावा जाने कितने लूट के मुक़दमे दर्ज थे . वो किसी केस में तीन साल की सजा भुगतने जेल आया था और यहाँ उसका सिक्का चलता था . उसे हर वो सुविधा जेल में ही उपलब्ध थी जो बाहर मिलती . एक तरह से वो यहाँ का " बादशाह " था .
गर्मियाँ शुरू हो चुकी थीं और शाम के तीन बज रहे थे 
और टोनी अपनी बैरक के बाहर सिगरेट पीते हुए चहलकदमी कर रहा था . और उसकी नजर सामने खेत पर पड़ी ....जिससे लगती जेल की ऊँची सपाट दीवाल थी और राइफल लिए संतरी ' सर्चलाइट से लैश बुर्ज़ ' पर तैनात था . उसने देखा ....एक आधी उमर गुजार चुका आदमी कुदाल लिए खेत में काम कर रहा था ....अचानक वो आदमी बैठ गया .....टोनी के ठीक सामने वह आदमी ...दोनों हाथों की मुट्ठियों से अपने बाल भींचे हुए था ....दाढ़ी मूँछ की खिचड़ी सफेदी साफ दिख रही थी . उसे इस हालत में बैठा देख ....टोनी हंसा और वापस बैरक में चला गया . वो आदमी थे ....श्री ज्ञानप्रकाश जी .
जेल में आये एक सप्ताह बीत चुके थे और ज्ञानप्रकाश जी अभी तक किसी से एक शब्द भी न बोले थे .
सुबह के नौ बज रहे थे ....और टोनी टहलता हुआ ज्ञानप्रकाश जी के सामने पहुंचा और बातें करने की कोशिश की ...लेकिन उसे अपने किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिला और तिलमिला कर उसने घुटनों में सिर दिए ...ज्ञानप्रकाशजी के बिखरे बाल पकड़ कर उनका सिर ऊपर उठाया ......और उनकी आँखों को देखते ही दो कदम पीछे हट गया और चुपचाप लौट गया . 
जेलर अपनी जेल में रोज की तरह टहल रहा था . तभी टोनी उससे बोला ....सर ! एक अर्ज़ करनी है .
हाँ बोलो ....जेलर ने कहा .
सर वो जो सामने सत्रह नंबर का कैदी है ....जो खेत में काम कर रहा है ......टोनी बोला 
हाँ ...जेलर नें कहा 
सर ! उसकी जो भी बैठकी बनती हो ....वो हमसे ले लीजिये ....लेकिन उससे काम न करवाइये ....टोनी नें कहा .
ठीक है ...कह कर जेलर चला गया . वो जानता था कि " टोनी ब्रिगेंजा " की इतनी विनम्रता भरी अर्ज , अर्ज नहीं ....आदेश था .
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अब उन्हें जेल में आये एक महीना हो चुका था . अभी तक ज्ञानप्रकाश जी एक शब्द भी नहीं बोले थे . साथी कैदी समझने लगे थे कि ये आदमी गूंगा है . 
भोजन का समय था ....कैदी लाइन में थालियाँ लिए भोजन पाने की प्रतीक्षा कर रहे थे और उस दिन जेलर पता नहीं क्यों कुर्सी डाले वहीं बैठा था . ज्ञानप्रकाश जी नें थाली में भोजन लिया और कुछ दूर जा कर बैठ गए . भोजन करने के पहले .....उन्होंने अपनी थाली से एक रोटी उठायी और एक मोटे कैदी की प्लेट में डाल दी ......उसने बड़ी कृतज्ञता से उन्हें देखा .
जेलर ....उस दिन श्री ज्ञानप्रकाश जी को जाने क्यों बड़े ध्यान से देख रहा था और उसने अपने मन में एक फैसला किया .......
रात साढ़े आठ बजे ...जेलर के सामने श्री ज्ञानप्रकाश जी को खड़ा किया गया ....और उन्हें सामने बैठा कर जेलर नें चाय मंगवाई और पीने का आग्रह किया ....
फिर बोला ...." लोग आपको गूंगा कहते हैं लेकिन न जाने क्यों मुझे लगता है ...आप गूंगे नहीं हैं . क्या आप पढ़े लिखे हैं ?" 
ज्ञानप्रकाश जी नें सहमति से सिर हिलाया .
और जेलर नें उनके सामने " कागज और कलम " रख दिया . " कागज और कलम " देख श्री ज्ञानप्रकाश जी की आंखें चमक उठीं . उन्होंने बड़ी नफ़ासत से  कलम उठाई और कागज़ पर लिखा ...." ऊँ " 
जेलर नें मुस्कुराते हुए कहा .....मैं आपसे बातें करना चाहता हूँ . जरूरी नहीं आप मेरे हर सवाल का जवाब दें ....आप स्वतंत्र हैं . हाँ तो ज्ञानप्रकाश जी ....यही नाम लिखा है आपका ...मैं जेल में आपकी क्या सेवा करूँ ? मैं जानता हूँ ....आप परिस्थितिवश जेल में हैं और दो महीने बाद छूट जायेंगे फिर भी मैं आपसे पूछता हूँ ....आपको कुछ चाहिए ?
श्री ज्ञानप्रकाश जी नें मोती जैसे अक्षरों में लिखा .....एक नाई चाहिए जो मेरे बाल और दाढ़ी बना दे .
जेलर नें पढ़ा और पूछा ....और क्या चाहिए ?
श्री ज्ञानप्रकाश जी नें लिखा .....ढेर सारा कागज़ और कलम , साहित्यिक पत्र पत्रिकाएँ , उपन्यास और अख़बार .
जी ....ठीक है ...मेरा प्रयास होगा कि आपने जो लिखा है उसे जल्दी से जल्दी उपलब्ध करवाया जाय .
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गंजे सिर और क्लीन शेव्ड चेहरे में ....ज्ञानप्रकाश जी का व्यक्तित्व निखार आया था .अब वे केवल भोजन के लिए ही बैरक से बाहर निकलते ....बाकी समय वे अपनी बैरक में ही बैठे कुछ न कुछ लिखते पढ़ते रहते ....खूब खुश रहते लेकिन बोलते वे अभी भी नहीं थे . उन्हें और उनके स्वभाव को कैदी समझ चुके थे . उनका जेल में सभी बहुत सम्मान करते और उनकी लिखाई पढाई में बिलकुल बाधा नहीं डालते थे .

.........................................................................अब उनके जेल में दो महीने गुजर चुके थे और इस बीच दो घटनायें घटीं .....

पहली घटना ....
जेल से छूटा एक कैदी ....रेलवे स्टेशन पहुँचा और वहाँ उसे दीवाल पर चिपकाये बहुत से पोस्टरों में से एक छोटे पोस्टर नें आकर्षित किया ....वो एक विज्ञापन था ......

लापता की तलाश 

यह आदमी इक्कीस फरवरी की रात 
बारह बजे से अपने घर से लापता है .
इसने नीले रंग की फुल बाजू की कमीज़ 
काला लोवर और एडिडास के जूते पहनें 
हैं . पता बताने या पहुंचाने वाले को एक

लाख रूपए नकद ईनाम दिया जायेगा .

और नीचे चार पांच फोन नम्बर लिखे थे ........
" इस विज्ञापन में जिस व्यक्ति की फोटो लगी है उसकी शक्ल जेल में बंद ज्ञानप्रकाश नाम के उस आदमी से मिलती है जो सत्रह नंबर बैरक में है और अभी भी वही होगा ." .......इतना सोचते ही उसके दिमाग में बिजली कौंधी .....

उसने फटाफट मोबाइल निकाला और कॉल लगाई ...

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ऐसा नहीं था कि श्री ज्ञानप्रकाश जी कोई गरीब आदमी थे बस किस्मत के मारे थे . काफी सारी जमीन जायदाद के मालिक थे . उनके रहते जिन करीबी रिश्तेदारों नें उन्हें कभी कुछ समझा ही नहीं ....ज्ञानप्रकाश जी के गायब होते ही वे सभी सात दिन के अंदर उनके घर एकत्र हुए . 
रो रो कर " उमा " का बुरा हाल था . वो पीली पड़ रही थी और बार बार बेहोश हो जाती थी . सबसे पहले उमा के बड़े भाई पहुंचे थे और सात दिन पहले ज्ञानप्रकाश जी गायब हो गए ....यह सूचना उन्हें उनकी भांजी नें दी थी ....जो तेईस साल की थी .
जिस रात ज्ञानप्रकाश जी लापता हुए उसके अगले दिन बच्चों के मामा से बच्चों की माँ नें ही फोन पर सिर्फ इतना ही पूछा था ....." क्या गुड़िया के पापा वहाँ हैं ? मोबाइल भी नहीं ले गए ."
आज सात दिन बाद भांजी नें बताया कि पापा सात दिन से गायब हैं .
अपना सारा जरूरी और बेइंतहा जरूरी काम छोड़ कर साले साहब ....श्री ज्ञानप्रकाश जी के घर पहुंचे . धीरे धीरे और लोंगो को सूचना मिली ....खोजबीन शुरू हुई लेकिन कुछ पता ही नहीं चला कि ज्ञानप्रकाश जी कहाँ लुप्त हो गए ....उनका पता लगाने के लिए हर संभव प्रयास किया गया और फिर उन्होंने अपनी पहुँच के स्थानों ....खास कर रेलवे स्टेशनों पर हजारों " इश्तेहार ए  लापता " छपवा कर लगवा दिए .
वे अपनी इकलौती बहिन को सीने से लगाए थे ....बच्चों की मामी पास ही बैठी टेसुए बहा रही थीं ...
और बच्चे वे सबसे ज्यादा दुःखी थे . दस साल के नितिन और सत्रह साल की वंदना नें आज इतने दिनों से जब से पापा गायब हुए थे ...अपनी माँ से बात भी न की थी .
रात बारह बजे जब श्री ज्ञानप्रकाश को उनकी पत्नी घसीटती हुई बाहर ले गई और बाहर फेंक कर भीतर से कुंडी लगा ली तो दस साल के नितिन नें दौड़ कर कुंडी खोलनी चाही थी ....तो माँ नें उसे पकड़ लिया और लाल लाल क्रोध भरी आँखों से घूरने लगी .
लेकिन रात के डेढ़ बजे सत्तरह साल की वंदना से न रहा गया और उसने दुनियाँ में माँ तो क्या किसी भी चीज की परवाह न करते हुए कुंडी खोल दी . बाहर आयी " पिता " को न पाया . घर में आयी जूते पहने और बाहर भागी उसके पीछे सबसे बड़ी अर्चना भी भागी और एक घंटे में मोहल्ले का कोना कोना छान मारा लेकिन " पापा " नहीं मिले . और फिर मामला संगीन होता गया ....आज दो महीने सात दिन बीत चुके थे और " पापा " का कहीं पता न चला .
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तभी फोन बजा ....अर्चना ने रिसीव किया और बोली ....हैलो !
उधर से आवाज आयी ...." जी मैडम ! मैं एक लापता लिखे इश्तेहार के सामने लखनऊ रेलवे स्टेशन पर खड़ा हूँ . जो साहब लापता हैं उनको मैं जानता हूँ . उन्होंने तो नहीं बताया लेकिन जहाँ तक मुझे याद आता है ....उनका नाम ज्ञानप्रकाश है ." 
जी जी जी सर ...वो मेरे पापा हैं . प्लीज बताइये वो कहाँ हैं ....अर्चना हड़बड़ाकर बोली .
आवाज आयी ...." मैडम आप क्या समझती हैं ...मैंने आपको क्यों फोन किया ? आपने एक लाख नकद इनाम की घोषणा की है ....ऐसे कैसे बता दूँ ?" 
जी जी ठीक है लीजिये मामा से बात कीजिये ....और अर्चना नें मामाजी को फोन पकड़ाया .
मामा जी फोन को कान से लगाए उधर से आती आवाज सुनते रहे . कुछ सवाल पूछे और बोले ...." मैं आपको अभी एक पता मैसेज करता हूँ ...अगर आपकी दी गई जानकारी से श्री ज्ञानप्रकाश जी मिल गए तो हम आपको तुरंत इनाम की रकम चुका देंगे .
ठीक है ...और फोन कट गया .
रात नौ बजे वह कैदी बताये गए पते पर पहुँचा ....वो एक होटल का लाउंज था ...वहां उसे ज्ञानप्रकाश जी की पत्नी उमा , उनके बच्चे और बच्चों के मामा मिले और उसने बताया ....." ये आदमी डिस्टिक जेल की सत्रह नंबर बैरक का कैदी है . बहुत पढ़ा लिखा जान पड़ता है . तीन महीने की सजा हुई थी . तीन हफ्ते बाद बाहर होगा ." 
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दूसरी घटना ......

इधर जेल में एक अंतर्राष्ट्रीय एन जी ओ का दल ...कैदियों की मनःस्थित को समझने और उन पर शोध करने के उद्देश्य से अपने तीन सदस्यीय पैनल के साथ आया था ....उस पैनल के एक सदस्य विख्यात समाजशास्र्त्री , लेखक और साहित्यकार श्रीयुत श्रीप्रकाश जी भी थे .
दोपहर के बाद के दो बजे थे ...और श्रीप्रकाश जी ....श्री ज्ञानप्रकाश जी के सामने बैठे थे और जैसे सामान पदार्थ अपने समान पदार्थ को अपनी ओर आकर्षित करता है .....वैसे ही एक साहित्यकार नें एक मौनधारी चिंतक को पहिचान लिया और उनका लिखा छपवाने का अनुरोध किया और एक प्रतिष्ठित पुरस्कार में भेजने के लिए अनुमति मांगी ...

.........................................................................तीन दिन बाद एक दिन वे अपनी लिखाई पढाई में व्यस्त थे तभी उन्हें सूचना मिली कि उनके परिजन उनसे मिलना चाहते हैं .....उन्होंने मिलनेवालों की लिस्ट देखी और जैसे ही " उमा " का नाम लिखा देखा ....तुरंत मिलने से मना कर दिया और दुःखी मन से दीवाल की तरफ मुँह कर लिया . इतने दिनों से इतना कुछ देखने के बाद भी उनकी आँखों में कभी आंसू नहीं आये परन्तु आज क्यों आए ?........

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जेल में उन्हें दो महीने उन्नीस दिन हो चुके थे . अब रिहाई के सिर्फ दस दिन बाकी थे और वे.....रिहा होना नहीं चाहते थे पता नहीं क्यों अब वे अधिकांश समय रोते रहते थे .
एक दिन जेलर नें उन्हें अपने ऑफिस में बुलाया....वहाँ श्रीप्रकाश जी भी थे . उन्होंने बड़े प्रेम से अभिवादन किया और श्री ज्ञानप्रकाश जी के सामने एक प्रतिष्ठित दैनिक पत्र रख दिया . ऊपर मोटे अक्षरों में जो छपा था उसका तात्पर्य था ....

" इस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ ' कथाकार ' हैं श्री ज्ञानप्रकाश उनकी कहानी ' भाग्योदय ' को इस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित करते हुए प्रदेश का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार प्रदान किया गया है ...तीस अक्टूबर को यह पुरस्कार .....माननीय राज्यपाल द्वारा राजभवन में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में प्रदान किया जायेगा ....."

29 अक्टूबर को शाम सात बजे ....श्री ज्ञानप्रकाश जी को जेल से ससम्मान रिहा किया गया . दो प्रसिद्ध साहित्यकारों और पुरस्कार की अनुशंषा करने वाले पैनल के एक सदस्य के साथ ...श्रीयुत श्रीप्रकाश जी एक शानदार कार के साथ श्री ज्ञान प्रकाश जी को इसी समय राजभवन में आयोजित रात्रिभोज में ले जाने के उपस्थित हुए थे ....करीब सौ की संख्या में साहित्यप्रेमी , लेखक और पत्रकार भी उपस्थित थे .
इधर ज्ञानप्रकाश जी एक शानदार गाड़ी में बैठ राजभवन गए और उधर एक स्कार्पियो से उतर कर उमा और उसके भाई जेलऑफिस पहुंचे .
ऑफिस से पता चला .....वे तो चले गए .
उमा चिल्लाई ....अरे ! कहाँ चले गए ? मैं उनकी पत्नी हूँ ...ये उनके साले हैं , हमसे मिले बिना कहाँ चले गए और कौन ले गया ?
ऑन ड्यूटी अफसर बोला ......" मैडम ! आप उनकी पत्नी हैं . आप से मिलकर कर बड़ी खुशी हुई . आपके पति को साहित्यकारों का प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुआ है जो कल उन्हें राज्यपाल महोदय द्वारा प्रदान किया जायेगा और इस समय वे उन्ही से मिलने राजभवन गए हैं . हमें गर्व है कि उन्हें जिस रचना पर ये पुरस्कार मिला वो उन्होंने इसी जेल में लिखी ."
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राजभवन के विशाल हाल में विशेष अनुमति पत्र के माध्यम से श्री ज्ञानप्रकाश जी की पत्नी ,उनके बच्चे और बच्चों के मामाजी बैठे थे .
खचाखच भरे हाल के मंच पर माननीय राज्यपाल महोदय ने श्री ज्ञानप्रकाश जी को प्रशस्तिपत्र , स्मृति चिन्ह , पाँच लाख रूपए का चेक ....दिया और शाल उढ़ा कर और फूलमाला पहना कर उनका अभिनन्दन किया .....पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा .

.........................................................................समारोह समाप्त हो चुका था ....

श्री प्रकाश जी अनेक ख्यातिलब्ध साहित्यकारों के साथ ...श्री ज्ञान प्रकाश जी को घेरे खड़े थे . और उनसे दस मीटर दूर ......उमा , नितिन , वंदना और अर्चना के साथ मामा जी भी खड़े थे ........
अचानक दस साल का नितिन भागा और जा कर उस भीड़ में " पापा " से जा लिपटा और बिलख बिलख कर रोने लगा और पापा भी अपने बेटे को सीने से चिपकाये रोने लगे .
सबने सोचा ये खुशी के आँसू हैं .

सारी जिंदगी असफलता का टैग पहन कर घूमने वाले और लूजर की गालियां सुनने वाले ....अभागे श्री ज्ञानप्रकाश जी महाज्ञानी का अब जाकर "भाग्योदय "

हुआ और हुआ भी तो कैसे !!!!



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Comments

Anil. K. Singh said…
कहानी बहुत अच्छी है। काबिलियत कभी-कभी चमत्कार करती है। क्या पता अगले ज्ञान प्रकाश आप ही हो। बस अपना भाग्योदय जेल की बजाय घर में कीजिए गा।
Anil. K. Singh said…
कहानी बहुत अच्छी है। काबिलियत कभी-कभी चमत्कार करती है। क्या पता अगले ज्ञान प्रकाश आप ही हो। बस अपना भाग्योदय जेल की बजाय घर में कीजिए गा।