डिब्बे में बंद आदमी
वे निहायत ही शरीफ़ और सीधे सादे आदमी थे . छप्पन साल के हो गए ....उनको दुनिया में आये . जब से होश में आये ....सबकी खुशी के लिए जिए . बाप नें जो कहा वो उन्होंने किया . बचपन में डरते थे बाप से इसलिये किया और बड़े होकर अपना कर्तव्य मान कर किया . लेकिन बाप जी कभी संतुष्ट न हुए . बाप जी का मान रखने के लिए उन्होंने अपनी इच्छाओं को बेरहमी से मार दिया लेकिन मरते मरते ....बाप जी ! अपनी नाखुशी जाहिर करते गए .
.........................................................................एक दिन ...घर की सफाई में उन्हे एक पुरानी ' चौपतिया ' मिली . जिसमें ब मुश्किल बीस या पच्चीस पन्ने रहे होंगे . उसमे उनके बाप नें अपने मन की लिखी थी और दस्तख़त किये थे . उसे पढ़ कर वे .....बहुत दुखी हुए और जो उनके मन में बाप जी के प्रति बचाखुचा सम्मान था वह भी चला गया . और उस दिन उन्होंने मेज पर चढ़ कर ...दीवाल से उनकी फोटो उतारी और बिना उसकी तरफ देखे ....एक पुराने ट्रंक में बंद कर आये . यही गनीमत थी कि उन्होंने उसे कूड़े में न फेका . आश्चर्य ये था कि घर में किसी नें उनकी इस हरकत पर कुछ नहीं कहा .
" इस चक्कर में बच्चू ....अपनी फिकर न कर पाए कि लोगों की फिकर कौन करेगा !!......"
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बीवी उनकी सर्वगुणसम्पन्न , पढ़ी लिखी और समझदार थी लेकिन जैसे " गैलन भर दूध में दो बूँद मट्ठा डाल दो तो सारा दूध दही बन जाता है वैसे ही .....उसका कर्कश और झगड़ालू स्वभाव उसके सभी सद्गुणों पर भारी था ."
वो उनके हर काम में टांग अड़ाती ..यहाँ तक कि अगर वे पान या तम्बाकू भी खा लेते तो घर में यूद्ध छेड़ देती .
और इस कलह से बचने के लिए वे बच्चा ठकुरसुहाती करते रहते और धीरे उसके पराधीन होकर वे वही करते जो वह कहती . फिर भी लाख सावधानी बरतने के बावजूद ...." तुम चप्पल पहन कर घर में क्यों घुसे बाहर ही क्यों न उतारा " इसी बात पर महाभारत मचा देती .
बड़े दुखी प्राणी थे बेचारे क्या करें क्या न करें . रिकार्डतोड़ ठंडी में ऊनी मोजा और उस पर चप्पल पहनती थी और उनसे इस बात पर खार खाती कि ...तुम चप्पल पहन कर क्यों आए . उसका बस चलता तो वो दर्जन भर चप्पलें उनके लिए रखती . ये वाली बाजार जाने के लिए ,ये वाली पेशाब करने के लिए , ये वाली घर की ,ये वाली बाहर की .....ये वाली ....ये वाली .
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इसी बीच उनका भाग्योदय हुआ " शायद ". ये "शायद " इसलिये क्योंकि ये पक्का नहीं कि वो "भग्योदय " था भी या नहीं .
वो मन के कोमल और शीघ्र द्रवित होने वाले साहित्यिक प्राणी थे .पढ़ने लिखने के बड़े शौक़ीन और फिर उन्होंनें बाहर भागने के बजाय ...खुद को एक " डिब्बे में बंद " कर लिया .
खाली समय में किताबें पढ़ते पढ़ते ...वे लिखने लगे और एक दिन उनका लिखा लोग पढ़ने लगे . लक्ष्मी मेहरबान हुईं तो सारी अत्याधुनिक सुख सुविधाएं घर में उपलब्ध हो गई .
बीवी अब सब कुछ पाने के बाद खुश तो रहती लेकिन उनसे खुश नहीं रहती !! वे एक कमरे में बंद हो गए .न किसी समारोह में जाते और न किसी से बोलते चालते ....अपने में मगन रहते . हँसते थे मुस्कुराते थे और ठहाके भी लगाते थे ...लेकिन दीन दुनिया से कोई मतलब न रखते .उनके कमरे का दरवाजा हमेशा बंद रहता . वे रात दिन पढ़ते लिखते सोते खाते लेकिन एक दो घंटे के लिए ही अपने डिब्बे से बाहर निकलते .
उनके कमरे में एक दीवान , कुर्सी मेज और दीवाल घड़ी के अलावा कुछ नहीं था और एक दिन वे साहित्य साधना में लीन थे .रात के बारह बज रहे थे और घड़ी की अनवरत टिक टिक घंटे की आवाज की तरह लग रही थी और अचानक ध्यान की गहराई में डूबे वे इस अनवरत टिक टिक से डिस्टर्ब होने लगे . पत्नी की टिक टिक नें उन्हें कमरे में बंद कर दिया ....और उसकी टिक टिक का तोड़ उनके पास था भी नहीं लेकिन ये तो घड़ी थी और उसकी टिक टिक वे बंद कर सकते थे और वे कुर्सी पर चढ़े और घड़ी का सेल निकाल कर उल्टा लगा दिया और टिक टिक बंद हो गई ..........काश वे अपने बाप और बीवी का सेल भी उल्टा लगा पाते ...इतना सोचते ही उनके दिमाग की घंटी बजी . उन्हें अपनी नई कहानी मिल गई थी ....घड़ी की टिक टिक .
..............................................................अपनी गृहस्थी और बालबच्चों में उलझी उनकी बीवी ....ये जान ही नहीं पाई कि उसका पति दिन ब दिन ...अपने में गुम होता जा रहा है . वो उनमें आ रहे व्यापक परिवर्तन को नहीं देख पाई ....लेकिन दुनिया नें देख लिया .
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वे एक लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार थे .सारी दुनिया उनको पढ़ती और सराहती थी ....लेकिन उन्हें उनके डिब्बे से कोई न निकाल पाया . उनके पास सबकुछ था लेकिन कुछ न था . वे दुनिया में रह कर भी नहीं रहते थे .
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