अनुभूति ....!!!

श्री रामनाथ जी , एक प्रबल आध्यात्मिक व्यक्ति थे और अध्यात्मवादी और धार्मिक में फर्क होता है ...ये बात उन्हें बाद में पता चली . वे किसी सरकारी कार्यालय में ' एकाउन्टेंट ' थे ....ठीक ठाक वेतन पाते थे और अपने जीवन से संतुष्ट थे . पचपन साल की उम्र हो चली थी और गृहस्थी के अन्य जंजालो से वे लगभग मुक्त हो चुके थे .
अब वे केवल शांति और आध्यात्मिक अनुभूति चाहते थे . उन्होंने किसी ग्रन्थ में पढ़ा कि .....

" तीर्थाटन करने और आध्यात्मिक वातावरण में रहने से मन को शांति मिलती है ...लगातार उस वातावरण में रहने और चिंतन मनन से ...विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होती हैं ." 

ये पंक्तियाँ उनके मन में लगातार गूंजने लगीं . कभी भी कार्यालय से अवकाश न लेने वाले श्री रामनाथ जी नें अपने ' साहब '  से छुट्टी मांगी और उन्होंने सहर्ष उन्हें एक माह की छुट्टी दे दी .
जैसे वे खुद थे ....उनकी पत्नी उनके ठीक विपरीत स्वभाव की थीं . उन्होंने उनके कहने के बावजूद भी उनके साथ चलने से मना कर दिया और अपने ढेर सारे घरेलू कारण गिना दिये .
अंततः श्री रामनाथ जी नें अकेले ही " तीर्थाटन " का निर्णय किया . उन्होंने जिस स्थान पर जाने का निर्णय किया ...मैं उस स्थान का नाम जानबूझ कर नहीं लिखना चाहता .
निर्धारित तिथि पर वे उस " विश्वप्रसिद्ध आश्रम " पहुंचे जो अपने आध्यात्मिक मूल्यों के लिए विख्यात था और पर्यटक वेवसाइटों नें उसे फाइव स्टार रेटिंग दी थी . उस आश्रम की भव्यता और चकाचौंध से से उनकी ऑंखें चौंधिया गईं . इतनी भव्यता तो उन्होंने किसी बड़े बजट की मल्टीस्टारर फिल्मों में भी नहीं देखी थी . बड़ा नाम सुना था ...इस पवित्र आश्रम का उन्होंने . उस आश्रम का प्रवेशद्वार देख कर उनके अंदर का एकाउन्टेंट जागा और उन्होंने अनुमान लगाया ....जितनी लागत इस प्रवेशद्वार को बनाने में लगी होगी ....उतने में दो कमरों के दर्जन भर मकान बन जाँय .
सामने आश्रम प्रांगण में कई दुर्लभ प्रजाति के देसी विदेशी फल और फूलों के कलात्मक ढंग से लगाये के पेड़ पौधों को देख वे अभिभूत हो गए . आगे जाने पर उन्हें एक विशाल और भव्य प्रवचन हॉल दिखा . मंच पर एक भव्य मूर्ति बैठे प्रवचन कर रहे थे और वे कह रहे थे .......

" जीवन में सुख और शांति से रहने के केवल दो उपाय हैं -- आशक्ति का त्याग और कामनारहित जीवन ." 

उन्होंने इन शब्दों को सुना और आगे बढे . उन्होंने ध्यान दिया तो देखा कि हर दस पंद्रह मीटर की दूरी पर कलात्मक ढंग से शीशे के बने " दानपात्र " रखे थे और छोटे बड़े नोट बाहर से ही दिख रहे थे . इसी तरह घूमते घामते और वहाँ की भव्यता का अवलोकन करते वे ...पंजीकरण कार्यालय पहुंचे . वहां एक अतिसुन्दर भारतीय वेशभूषाधारी कन्या बैठी थी . उन्होंने उस कन्या को बताया कि वे उस आश्रम में तीन दिन रुकना चाहते हैं और उस कन्या नें मुस्कुराते हुए उनके सामने एक कैटलॉग रख दिया . उस भव्य पाँच सितारा आश्रम में एक दिन और एक रात ....रुकने की कीमत कम से काम 2000 से लेकर 20000 रूपए तक थी . भोजन के लिए एक भव्य भोजनशाला या कहिए रेस्टोरेंट था जहाँ हर प्रकार का शाकाहारी व्यंजन उपलब्ध था लेकिन कीमत .....!! वो स्थान उन्हें आश्रम कम होटल ज्यादा लगा . फिर अपने बजट के अनुसार उन्होंने कमरे का चयन किया और बेलब्वाय की तरह एक अनुचर उपस्थित हुआ . वे अपने कमरे में पहुँचे .
उस आश्रम में उन्होंने जो अनुभव किया ...उसके अनुसार वह आश्रम ....एक पूरी इंडस्ट्री था . अगरबत्ती , पूजन सामग्री ,कपड़े , साबुन , तेल , घरेलू उत्पाद और जाने क्या क्या वहाँ शुद्धता के नाम पर बाजार में उपलब्ध मिलते जुलते उत्पादों की तुलना में दो से तीन गुना अधिक मूल्य पर बिकता था और खूब बिकता था . उन्होंने अनुमान लगाया कि उस आश्रमरुपी उद्योग का वार्षिक टर्नओवर कम से कम सौ करोड़ रूपए या उससे अधिक ही होगा .
क्या बात थी !.......

"आशक्ति का त्याग और कामना रहित जीवन" 

सब ढकोसला था . दुनिया के झंझावातों से दूर जाने और मन की शांति और आध्यात्मिक अनुभूति के लिए वे इस आश्रम में आये थे . लेकिन अध्यात्म और धर्म की आड़ में चल रहे इस व्यापार नें उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया कि ...

" सोच समझ कर किया गया अपराध भी ....उस अपराध से कमतर ही होगा जो ईश्वर और दुनिया को उल्लू बनाकर यहाँ चल रहा है " 

और भी बहुत कुछ उन्होंने वहाँ देखा जो किसी भी प्रकार से उन्हें संतुष्ट न कर सका . उनका मन वितृष्णा से भर गया और उनका तथाकथित कुण्डलिनी जागरण हो गया . वे घर लौट आये .
उनकी पत्नी नें उनसे पूछा आप तो एक महीने के लिये घूमने गए थे ! ये चार दिन में ही कैसे वापस आ गए . बेचारे रामनाथ जी क्या बताते और उन्होंने अपनी पत्नी से कहा ....

" अरी भाग्यवान ! तुम्हारे बिना वहाँ मेरा मन ही नहीं लगा " 

और उनकी पत्नी प्रसन्न हो गई .
गर्मियों का मौसम और रविवार का दिन था . अपने संस्कारवश वह मंदिर गए . उस दिन वहाँ मेला लगता था और दूर दूर से भक्तगण वहाँ पहुँच कर अपनी इच्छा और मनौती भगवान से व्यक्त करते थे . बड़ी भीड़ थी और रामनाथ जी ....इक्यावन रूपए का प्रसाद और फूलमाला लेकर लाइन में लग गए . पूरे एक घंटे बाद वे भगवान के सामने पहुँचे और आंख मूँद कर बड़े श्रद्धा भाव से ...होठों में ही कोई मंत्र बुदबुदाने लगे .
तभी उनके कानों में पुजारी का कर्कश स्वर पड़ा .......
...." अरे आगे बढ़ो बाबा ! और भी लोग लाइन में खडे हैं ." उन्होंने बड़े श्रद्धा भाव से प्रसाद उसके हाँथ में रखा तो उसने कहा -- " अरे ! कुछ दक्षिणा भी तो रखो इस पर ." 
उन्होंने अपनी जेब में हाँथ डाला ....पांच सौ और सौ के एक नोट के अलावा उनकी जेब मे सिर्फ दस का एक नोट था और वही उन्होंने पकड़ाया ...पुजारी नें उन्हें बड़ी हेय दृष्टि से देखते हुए ...भगवान को प्रसाद अर्पित किया और डिब्बे में मात्र चार लड्डू छोड कर शेष प्रसाद एक डिब्बे में डाल दिया और इस तरह से डिब्बा वापस किया मानो प्रसाद चढ़ा कर उसने " श्री रामनाथ जी पर कोई बड़ा अहसान कर दिया हो . उसी समय कत्ल और डकैती के जुर्म में सजायाफ्ता और हाईकोर्ट से बेल पाया एक प्रसिद्ध गुंडा और बेईमान आदमी अपनी लग्जरी गाड़ी से अपने गनर के साथ उतरा . पांच सौ का प्रसाद और कमल के फूल की माला लेकर वो पुजारी के सामने पहुंचा और एक हजार रूपए दक्षिणा रखी और पुजारी अभिभूत हो गया .बिना लाइन में लगे वह दुष्ट सीधा गर्भगृह में पहुंचाया गया और पुजारी नें बिना लाइन की परवाह किये ...पूरे आधे घंटे बड़े विधिविधान से पूजा करवाई और लौटते समय कार तक पहुंचाने आया .
और एक बार फिर " रामनाथ जी " का मन वितृष्णा से भर गया ....क्या जमाना है बिना अपराधी बने अब भगवान भी दर्शन नहीं देंगे क्या ?
और उनका प्यास से गला सूखने लगा . उन्होंने चारो तरफ देखा इस भीषण गरमी में कहीं पानी न दिखा .एक सरकारी " शीतल जल " पर उनकी दृष्टि पड़ी . परन्तु उसकी सारी टोटियां टूटी फूटी थीं और पानी तो था ही नहीं !!
यह सोच कर वे प्रसाद की दुकान पर गए कि हाँथ धोने के लिए तो पानी रखता ही होगा परन्तु वह पानी पीने योग्य नहीं था और उन्होंने दुकानदार से पानी माँगा .....उसने बिसलरी की बोतल पकड़ाई और बोला -- पचीस रूपए . पांच रूपए ज्यादा क्यों ? ये पूछ्ने पर हाँथ की बोतल लगभग छीनते हुए बोला .....जहाँ सस्ता मिले ले लो ....
और रामनाथ जी नें मजबूरी में बोतल खरीदी और पानी पिया .

रविवार का दिन था . मंदिर पर मेला था और मेले में जबरदस्त भीड़ थी ... ठंडे आर ओ वाटर से भरा एक टैंकर वहां खड़ा था और एक आदमी स्टूल पर बैठा लोगों से ठंडा पानी पीने का " अनुरोध " कर रहा था .देखते देखते वहाँ .." जल पिपासुओं " की भीड़ लग गई . शाम होने के पहले दो हजार लीटर की टंकी खाली हो गई और वो भला आदमी अपना स्टूल गाड़ी में रख कर ...गाड़ी चलाता हुआ " श्री रामनाथ जी" के घर पहुँचा ....श्री रामनाथ जी नें उसे दो हजार रूपए दिये और पांच सौ रूपए अतरिक्त देते हुए बोले ....." मैं टैंकर से थोड़ी दूर खड़ा होकर दिन भर लोगों को बिना रुके बड़े प्रेम भाव से ...पानी पिलाते तुम्हें देखता रहा हूँ और कई लोगों को तृप्त होकर आशीर्वाद देते हुए भी सुना है ."  ये पैसा तुम रख लो .

टैंकर वाला कुछ देर उन्हें देखता रहा और फिर हँसते हुए बोला --- " वाह बाउजी ! सारा पुण्य खुद ही लूट लेना चाहते हैं .हमारा भी तो कुछ हिस्सा बनता है ." यह कह कर उसने अगले रविवार मिलने का वादा किया और पांच सौ रूपए वापस कर चला गया .

गरमी भर लोगों की प्यास बुझती रही और श्री रामनाथ दूर खड़े लोगों का आशीर्वाद और मुख के तृप्ति भाव देखते रहे . वे फिर मंदिर में तो नहीं गए सिर्फ उस पुजारी के कारण लेकिन उन्हें अनुभव हो रहा था कि " बिना पूजापाठ और तीर्थाटन किये भी सुख शांति और आध्यत्मिक अनुभूति हो सकती है " !!!





Comments

Anil. K. Singh said…
आज का ब्लाग जी को छू गया। ऐसे ही तंग आगर मैंने कहा था कि इस जीवन में विन्ध्याचल नहीं आऊंगा। यदि आया भी तो मंदिर में नहीं घुसूंगा। बहुत अच्छा।
Anil. K. Singh said…
आज का ब्लाग जी को छू गया। ऐसे ही तंग आगर मैंने कहा था कि इस जीवन में विन्ध्याचल नहीं आऊंगा। यदि आया भी तो मंदिर में नहीं घुसूंगा। बहुत अच्छा।