निर्मल मन जन सो मोहि पावा ......(अध्याय .एक )

गाँव की चौपाल में पंचायती श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन था ,एक विद्वान् कथावाचक पंडित जी ..प्रतिदिन सायंकाल कथा कहते थे .भगवान श्रीकृष्ण का चरित्रामृत सुनने के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ता था .चौपाल में बरगद के विशाल वटवृक्ष के नीचे व्यासगद्दी थी ......गोधूलि की बेला थी और कथा प्रारम्भ हो चुकी थी .
उसी समय कुख्यात डाकू दुर्जन सिंह नें गाँव में प्रवेश किया .पूरा गाँव खाली देख ...वह खुश हो गया कि आज तो निर्विरोध अपना काम करेगा .
सामने चौपाल पर लोगों की भीड़ जमा थी .उसने अपना शरीर और मुँह चादर से ढका और अपनी भारी लाठी को सँभालते हुए ..लोगों की नजरों से बचते हुए ...आगे बढ़ा .तभी उसके कानों में कथावाचक पंडित जी का मधुर स्वर पड़ा .....
....." और मइया नें ..अपने धूलधूसरित कन्हैया को जबरदस्ती नहलाया ,उन्हें अंगवस्त्र पहनाए .कन्हैया को हीरे मोती और माणिक्य से जड़े आभूषण पहनाए ,पैरों में सोने की नूपुर ,कमर में सोने की करधन ,मोरमुकुट में जड़े हीरे और सोने की बांसुरी ........" यह सुनकर दुर्जन सिंह वहीं बैठ गया और सोचने लगा ...' एक बच्चे के पास इतना धन !!! अगर मुझे मिल जाए तो सारे कष्ट दूर हो जायें .डाका डालते ...चोरी करते मैं साठ साल का हो गया ...आगे शरीर में इतना बल नहीं रहेगा ...ये धन मिल जाए तो बुढ़ापा आराम से कट जायेगा .यही सोचते सोचते बहुत समय बीत गया ...और घंटा घड़ियाल बजने लगे और कथा ..
..विराम हुआ .
पंडित जी नें आरती की प्रसाद वितरण किया और एक नवयुवक को गद्दी की सुरक्षा में लगा कर ....अपना पोथीपत्रा और चढ़ावा समेट ...अपने घर की ओर चले .
पंडित ..जैसे ही निर्जन राह पर पहुंचे ...डाकू दुर्जन सिंह ...हाँथ में भारी लट्ठ लिए , उनके सामने पहुंच गया और कड़क कर बोला ..." ठहरो पंडित !!" 
अपने से तीन हाँथ ऊँचे काले कलूटे लाल लाल आँखों वाले दुर्जन सिंह को देख कर ..पंडित डर के मारे थर थर कांपने लगे .उनका कंठ सूखने लगा और वे बहुत प्रयास कर बोले ..." मेरे पास चढ़ावा ,दक्षिणा और पुस्तक के अतिरिक्त कुछ नहीं है .तुम्हें क्या चाहिए ?
दुर्जन बोला ....हा हा हा !! तुम क्या दे सकते हो भला ?तुम तो केवल ये बताओ कि जो अभी तुम कथा सुना रहे थे ...क्या वो सच है ?
पंडितजी ने मजबूती से सिर हिलाते हुए कहा ....
..." हाँ !!सत प्रतिशत सत्य है ..मैं शपथ खा सकता हूँ ." 
" तो बताओ ...वो लड़का ,जिसे तुम कभी कान्हा ...कभी कन्हैया और कभी कृष्ण कह रहे थे ....कहाँ मिलेगा ?.." ....दुर्जन सिंह बोला .
पंडित बोले ...उससे तुम्हे क्या काम ?
दुर्जन बोला ....मैं डाकू हूँ और मेरी अवस्था ढल रही है .मैं एक आखिरी बार इस कृष्ण नाम के बालक को लूटना चाहता हूँ ...ताकि मेरा बुढ़ापा आराम से कट जाए ...अब तुम सीधे सीधे बताते हो या तुम्हारा सिर फोड़ दूँ !!!
...........................
पंडित जी समझ गए कि ये डाकू शरीर से तो बलिष्ट है लेकिन बहुत बड़ा मूर्ख है .अब वे कुछ शांत दिखने लगे थे .स्वयं को नियंत्रित कर वे बोले .......देखो भाई ! उनका पता ठिकाना तो मेरी दूसरी पोथी में लिखा है ....यदि तुम मेरे घर चल सको तो मैं तुम्हे बता दूंगा .
डाकू बोला ....ठीक है पंडित लेकिन यदि तुमने कोई चालाकी की ...तो मैं तुम्हारा सिर फोड़ दूँगा !!!
घर पहुँच कर पंडित सोचने लगे ....कोई और होता तो मैं उसे समझाता लेकिन इस महामूर्ख को कैसे समझाऊं ?अब ये मेरे द्वार पर बेचैनी से टहल रहा है ...मैं इसको क्या बताऊँ ?
अंततः पंडित एक पुस्तक हाँथ में लेकर बाहर आये और बोले ................
क्रमशः जारी .....

Comments

Anil. K. Singh said…
पंडित जी से कहीं अच्छी तरह कथा आप सुना रहे हैं। दुर्जन कही आप से भी न मिल जाये। बहुत अच्छा।
Anil. K. Singh said…
पंडित जी से कहीं अच्छी तरह कथा आप सुना रहे हैं। दुर्जन कही आप से भी न मिल जाये। बहुत अच्छा।