वो नाव चलाने वाली लड़की


(प्रस्तुत कहानी एक सत्य कथा है ...)
बात उन दिनों की है जब नदी पर पुल नहीं बना था ..
सड़क ....होने का तो सवाल ही नहीं उठता . बरसात बीत चुकी थी और सर्दी का मौसम शुरू हो चूका था .नदियाँ और तालाब पानी से लबालब भरे थे .
मैं बाजार में धुनिया (रुई धुनने वाला ) की दुकान पर बैठा रजाई भरवा रहा था .चार घंटे वहीं बैठ कर मैंने रजाई भरवाई ...उन दिनों धुनिया रजाई भर कर उसे सलीके से लपेट तो देता था ...लेकिन सुई धागे से टांकने का काम घर की महिलाऐं करती थीं .
मैंने रजाई लपेट कर साईकिल के कैरियर पर लादा और खूब कस कर बांधा .मेरी उम्र उस समय उन्नीस बीस साल रही होगी .रजाई का वजन लगभग छह किलो के आसपास था ....उस पर मैंने एक बोरा घर का सामान भी बांध लिया .
मैं जब साईकिल लेकर चलता तो ....अगला पहिया उठ जाता .मैंने साईकिल को बड़ी मुश्किल से एक ऊँचे मिट्टी के ठीहे पर लगाया और फिर उस पर बैठ कर अपने सारे शरीर का सारा वजन हैंडिल पर डाला ....तब जाकर साईकिल संतुलित हुई .सड़क थी नहीं
खेतों के बीच बने तीन फीट चौड़े रास्ते पर किसी तरह साईकिल चलाता मैं नदी के घाट पर पहुँचा .
नदी बढ़ी हुई थी और पार उतरने का एकमात्र साधन नाव ही थी और नाव वहाँ थी नहीं .मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा सोच रहा था ....शाम होने वाली है ..उस पार कैसे जाऊं ..कोई दिख भी नहीं रहा !!! इस बीच मेरी ही तरह कुछ और लोग भी पहुँच गए ...जिन्हें नदी पार करनी थी ....लेकिन सामान का बोझ  तो केवल मेरे ही पास था .
और लोगों नें' केवट ' को आवाज देनी शुरू की .
बड़ी देर तक चिल्ल्पों के बाद एक सोलह सत्रह साल की लड़की प्रकट हुई ...और उस पार बंधी नाव को लम्बे बांस के सहारे ठेलती हमारी तरफ आई .केवट महाशय कहीं गए थे और ऑन ड्यूटी उनकी वो बद्तमीज कन्या उपलब्ध थी .बहुत सुन्दर थी वो ...लेकिन उसकी कर्कशता उसकी सांवली सुन्दरता पर भारी पड़ रही थी .इस तरह उसे नदी पर ड्यूटी देना ...शायद पसंद नहीं था .
खैर ...सभी लोग तो नाव पर चढ़ गए और मैं साईकिल के हैंडिल को दबाता ...जांघ बराबर पानी में खड़ा था ...मेरी पैंट घुटने के ऊपर तक मोड़ी गई थी ....लेकिन पैंट पूरी तरह भीग गई थी और कारण था कि ...वो सुन्दरी नाव को ठीक से किनारे लगा नहीं पा रही थी .सहयोगी यात्रियों नें साईकिल का अगला टायर पकड़ कर ऊपर चढ़ाया ....तब तक उस लड़की ने नाव आगे बढ़ा दी ...और साईकिल नाव के अंदर जा गिरी और मैं ...पानी में .
मुझे बहुत जोर का गुस्सा आया और मैंने उस लड़की से कहा ....बदतमीजी मत कर .अगर रजाई भीग गई तो मैं तुझे उठा कर पानी में फेंक दूंगा ...!!!
लड़की गुस्से से तमतमाई और बोली ....फैंक के देखो ..हमहुँ तुहे लैके यही पनिये मा सती होइ जाब .
मैंने कहा ...सती हो तू अपने मरद के साथ ...हमरे साथे सती होए तोहे का मिली ...
और बात बढ़ गई और शुद्ध अवधी भाषा में उसने मुझे गरियाना शुरू किया ....मैंने भी ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू किया .
जमाना दूसरा था वर्ना आज कल की बात होती तो दलित उत्पीड़न से लेकर लड़की छेड़ने जैसे आरोप लग जाते और जमानत भी न होती .
दस मिनट में नाव किनारे पहुंची .इस बार उस लड़की नें नाव बहुत सलीके से लगाई .सारे लोग उतर कर भागे और मैं नाव में अकेला खड़ा कभी साईकिल संभालता कभी खुद को ....हवा तेज चल रही थी मैं पानी से सराबोर तेज ठण्ड महसूस कर रहा था .
अंततः उसी लड़की नें साईकिल बाहर निकालने में मेरी मदद की .और मुस्कुराते हुए बोली ..." भीग गयो बाबू ! कांप रहे हौ ...ताप लेव तब जाव ...बैठो हम कौरा (अलाव ) बारित है .मैं कूढ़ मगज कुछ न समझा और उसका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया .मैं नहीं माना तो वो ढिठाई से बोली ...तो बाबू जौंन रजाई बांधे हो उहे ओढ़ लेव ...और खिलखिलाकर कर हंसने लगी .
मैं खिसियाया सा अपनी साईकिल संभालता गिरते पड़ते घर पहुंचा ...रात हो गई थी ....

समाप्त ...
© अरुण त्रिपाठी ' हैप्पी अरुण ' 
(चित्र गूगल से साभार )

Comments

Anil. K. Singh said…
हमें भी अपना दिन याद आ गया। अब इतना याद नहीं है कि किसी ने अलाव का आफर दिया था कि नहीं। खैर! आपको तो मिला ही।
Anil. K. Singh said…
हमें भी अपना दिन याद आ गया। अब इतना याद नहीं है कि किसी ने अलाव का आफर दिया था कि नहीं। खैर! आपको तो मिला ही।