एक साहित्यिक कैटेगरी

मित्रों !
मेरा अनुभव है कि जिस विषय पर जितना अधिक विचार करो ...वो उतना ही उलझता जाता है और अंत में कोई निष्कर्ष ही नहीं ...निकलता और कहना पड़ता है ....वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन ...उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा .
क्या कभी कोई तथाकथित अफ़साना अपने वास्तविक निष्कर्ष पर पहुँचा ? मुझे लगता है नहीं .कभी कभी तो पूरी कहानी पढ़ लेने पर भी लगता है
.....ये तो कोई बात नहीं हुई !!! मुझे लिखना होता तो मैं ये लिख देता ...मैं वो लिख देता !!!!
अभी दो दिन पहले मैं रेलवे स्टेशन गया था ...किसी काम से तो बुकस्टाल पर कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ खोजने लगा ....अब कम ही लोग पत्र पत्रिकाएँ पढ़ते हैं ...उस स्टाल पर जो कभी गुलज़ार रहता था मुझे कुछ विशेष दिखा नहीं और जो दिखा उसे देख कर लगा कि ....आज साहित्य में भी ' एजेंडा 'चलने लगा है .....ये दलित साहित्य .ये कम्युनिस्ट साहित्य .ये धार्मिक साहित्य और ये आधुनिक साहित्य ....और ये मिक्सचर साहित्य .
दलित साहित्य क्या है ? जिसे किसी ' अनुसूचित जाति ' या कहिए तथाकथित ' दलित साहित्यकार नें लिखा है और उसमें सिर्फ उच्च जाति का निम्न जाति पर अत्याचार वर्णित हो .बस और कुछ नहीं .सोचता हूँ ..इस विषय का सबसे गंभीर विवेचन तो ' प्रेमचंद ' ने किया है ...तो क्या वे दलित साहित्यकार थे ?....नहीं .क्योंकि उस समय दलित राजनीति नाम की कोई चिड़िया थी नहीं और न वोट की राजनीति ही थी .मार्क्सवादी साहित्य क्या है ?...जिसे किसी कम्युनिस्ट विचारक नें लिखा हो और जिसमें केवल अमीरों का गरीबों पर अत्याचार वर्णित है और कुछ नहीं .
आधुनिक या मिक्सचर साहित्य वो है जिसे किसी ऐसे व्यक्ति नें लिखा हो जिसे न ठीक से हिंदी आती हो ...न अंग्रेजी .वो आधुनिकता के नाम पर खिचड़ी लिखता हो और कुछ नहीं .
साफ साफ कहूँ तो " साहित्य " का कोई एजेंडा हो ही नहीं सकता .साहित्य तो आत्मा की आवाज है .जैसा अंदर से अनुभव हो वैसा ही बाहर लिखा जाए .एक साहित्यकार की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है .समाज को बनाने और बिगाड़ने में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है .आज टी वी और सिनेमा का समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव है .यह प्रभाव सीधा सीधा साहित्य का ही प्रभाव है .
कहते हैं ....साहित्य समाज का दर्पण होता है .वस्तुतः समाज ...साहित्य का दर्पण होता है और यही सत्य है .कई बार लगता है जो साहित्यकार जितना गूढ़तम लिखे और जिसका लिखा समझ में न आए ...वो
" बड़ा साहित्यकार " होता है .
साहित्य वह अमृत है जिसे पीकर आत्मा तृप्त हो जाए .एक नशा हो जाए ...एक परम संतुष्टि मिल जाए .
उस लेखन को साहित्य की श्रेणी में कदापि नही रखा जा सकता जो व्यक्ति के " कुत्सित भाव " जगा दे ..
एक बेचैनी और हिंसा पैदा कर दे .
साहित्य ...परम शांति है ..परम सुख है .

Comments

Anil. K. Singh said…
बहुत सही विवेचन किया है आप ने। सवर्ण को खलनायक साबित कर दो साहित्य तैयार हो गया। चाहे उसमें कोई गम्भीर विवेचन हो या न हो।