एक फ़र्ज़ी वैराग्य !!!


शांत मनःस्थिति में मन ....शांत जल की तरह होता है .जैसे एक छोटा सा पत्थर भी ...पानी में गिर जाए तो ...लहरें बनने लगती हैं .उसी प्रकार 
" एक विचार " ....एक छोटा सा विचार भी हमारे शांत मन में हलचल मचा देता है .स्वामी विवेकानंद के अनुसार ....' अपने मन को इतना ' शांत ' बना लो कि कोई भी स्थिति उस शांति को भंग न कर सके .' 
अब मन इतना शांत हो कैसे ?
यह स्थिति केवल ध्यान से प्राप्त की जा सकती है 
" ध्यान " वह पुरातन विधि है ..जो हमारा "स्वयं"से परिचय करवा देती है .
हम ,देश विदेश ,समाज ,परिवार ,अड़ोसी पड़ोसी ...सब से परिचित हो जाते हैं ....केवल अपने आप से ही परिचित नहीं हो पाते !!! और वास्तव में इसे ही कहते हैं ....दीपक तले अँधेरा !!!!
" ध्यान " का अर्थ है चुपचाप बैठना .बाहर से तो सभी चुप हो सकते हैं , लेकिन इस "चुपचाप " बैठने में ...."भीतर " से चुप होना पड़ता है .और यही पर मुश्किल खड़ी होती है .जैसे ही हम शाँत होते हैं ....दुनिया भर के विचार आने लगते हैं और हमें पता तब चलता है जब हमारा मन घूमघाम कर वापस आ जाता है .तब पता चलता है कि " यह विचार " हमारे मन को कहीं और ले उड़ा था .
...और विचारों की एक श्रृंखला प्रारम्भ हो जाती है .
" ये विचार " न आयें ...और इन्हे " बाहर " ही रोका जा सके ....इस विषय पर " महर्षि अरविन्द " नें बहुत सुन्दर विवेचना की है .वे कहते हैं कि निरंतर अभ्यास और वैराग्य से " यह स्थिति " संभव है .अभ्यास तो अपने हाँथ में है ....जब भी समय मिला " शांत " होने का अभ्यास करने लगे लेकिन वैराग्य ?
क्या अर्थ है इस वैराग्य का ?वैराग्य का यह अर्थ कतई नहीं हो सकता कि हम सब कुछ छोड़छाड़ कर " बाबाजी " बन जायें !!!क्योकि असली वैराग्य हुए बिना यदि हम " बाबाजी " बन भी गए तो - ' पहले महल के लिए जान देते थे और अब झोपड़ी के लिए दे देंगे .
पुराणों में एक मार्मिक कथा आती है .....
एक समय की बात है ...मगध के सम्राट और अवध के सम्राट ...एक दुसरे के मानसिक मित्र थे 
दोनों नें एक दुसरे को कभी देखा नहीं था परन्तु एक दुसरे के धार्मिक क्रियाकलापों ,विचारों और शासन की गुणवत्ता से प्रभावित थे .और एक दिन अवधराज को वैराग्य हुआ और वे अपने पुत्र को राज्य सौंप कर ...हिमालय चले गए और बद्रिकाश्रम में " तप " करने लगे .
यह बात जब मगधराज को पता चली तो उन्हें भी 
' तथाकथित वैराग्य ?' हो गया और वे भी अपने पुत्र को राज्य सौंप ...तप के लिए निकल पड़े .
कालांतर में इन दोनों की भेंट हुई और बातचीत के मध्य ,दोनों नें एक दूसरे को पहिचान लिया और उन के मध्य प्रगाढ़ मित्रता स्थापित हुई .एक ही कुटी में दोनों रहते ...साथ साथ साधना करते ,
सत्संग करते और सप्ताह में एक दिन पहाड़ से नीचे उतर ...गांव में भिक्षाटन करते और जो कुछ मिल जाता ....उसी से जीवनयापन करते और जप तप में लीन रहते .
एक दिन वे दोनों भिक्षाटन कर लौटे और जो भी मिला उसका " भोग " लगा कर स्वयं पाने बैठे 
तभी ...मगधराज उठे और झोपड़ी में खोंसी गई एक " पुड़िया " निकाल कर .....अवधराज के सम्मुख रखी .
अवधराज बोले ...' ये क्या है ?' 
मगधराज बोले ....' नमक ' !!! पिछली बार भिक्षाटन में मिला था ! बच गया तो पुड़िया बना कर रख दिया कि अगर किसी दिन " नमक " न मिला ...तो काम आएगा !!!!
अवधराज का मुख वितृष्णा से तप्त हो उठा और वे बोले ...." अवधराज आप मूर्ख हैं ! आप सौ योजन का राज्य त्याग कर यहाँ आए और अब 
" नमक " का लोभ नहीं छोड़ पा रहे और उसका संग्रह कर रहे हैं !!!
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इस प्रकार के " फर्जी वैराग्य " का क्या मतलब .कथा का मर्म केवल इतना है कि " वैराग्य " कोई प्राप्त करने वाली वस्तु नहीं ....यह केवल एक विशेष " मनःस्थिति " है .
मिल जाए तो ठीक ,न मिले तो भी ठीक .इच्छा पूरी हो तो भी ठीक ...न हो तब भी ठीक .जिस परमात्मा की हम उपासना करते हैं उस पर इतना विश्वास तो होना ही चाहिए कि वह हमारी जरूरतों का ख्याल रखेगा !!!
इसी विश्वास को " वैराग्य " कहते हैं .
जैसे एक शिशु अपनी माँ पर विश्वास रखता है और निश्चिंत होकर उसकी गोद में सोता है ......
उसी प्रकार का " विश्वास " जब  परमात्मा पर होगा ...तभी " ये वैराग्य " पैदा हो सकता है .

Comments

Anil. K. Singh said…
अंत में बहुत अच्छा विवेचन किया है । इसे दुबारा पढ़ना पडे़ गा।