मेरी पहली आध्यत्मिक यात्रा : एक विडंबना

कहानी शुरू होती है ...जब मैं दो साल के लिए बेरोजगार हो गया था .मेरी शादी हो चुकी थी और मैं गांव में था क्योंकि मेरी नव विवाहिता पत्नी गांव में थी और मैं उसकी मोहब्बत में गिरफ्तार था ..दिन बिताने के लिए ...मैं घर से दस किलोमीटर दूर एक कस्बे में एक दुकान पर बैठने लगा था .....लेकिन वहां मेरा मन .....लगता नहीं था .
एक दिन मैं अपने एक मित्र ...?...के घर गया .मैं पढ़ने का शौक़ीन तो था ही ...मैंने उनसे कुछ माँगा जो मैं पढ़ सकूं .मेरी साहित्यिक यात्रा तो आप पढ़ ही चुके हैं ..मैं जो कुछ भी स्तरीय पा जाता था ...पढ़ने लगता था .और मेरे उस परिचित ने मुझे एक आध्यात्मिक पत्रिका पकड़ा दी ....नाम था ...." अखण्ड ज्योति "
मैं एक ही घंटे में उसे पढ़ गया .और फिर वहां से दस पंद्रह पत्रिकाएँ लेकर मैं दुकान पर पहुंचा .और दो तीन दिन में मैं सब पढ़ गया ....मुझे एक आध्यत्मिक नशा सा चढ़ गया था और मैंने बिना सोचे समझे ....."शांतिकुंज हरिद्वार " एक पत्र लिखा .जिसका जवाब एक सप्ताह के बाद प्राप्त हुआ .पत्र क्या वो एक तरह का आध्यात्मिक निमंत्रण पत्र जैसा था .
पैसा तो कभी मेरी जेब में रहता नहीं था .सो मेरी पत्नी नें मेरी मदद की .....मुझे अपने पास से पैसे दिए ....मेरा बिस्तरबंद (होलडॉल ) जिसमें एक गद्दा ,रजाई और तकिया चद्दर था ...पैक किया .साथ में रास्ते के लिए भोजन और कपड़े से भरा एक चमड़े का बैग भी था .....और मैं अपने पड़ोसी मित्र की साईकिल पर सामान लाद ...अपनी सद्यः विवाहिता पत्नी को पीछे रोता छोड़ मैं रवाना हुआ . बाद में पता चला कि मेरे पीछे मेरी पत्नी की बड़ी दुर्गति हुई ....क्योंकि उसी ने मेरी मदद की थी .
खैर ...उस समय बिना रिजर्वेशन ...ट्रेन में जगह मिल जाती थी .हरिद्वार पहुँच कर मैं सीधे शान्तिकुञ्ज पहुंचा .' स्वागतकक्ष ' में मेरा परिचय पुछा गया और मैंने वही नीले रंग का अंतर्देशीय पत्र ....जिस पर ...माता भगवती देवी शर्मा (परम वंदनीया माता जी )
के हस्ताक्षर थे ....प्रस्तुत कर दिया ...जो मुझे शांतिकुंज से भेजा गया था .कोई प्रश्न ही नहीं पूछा गया .एक कार्यकर्ता मुझे एक हॉल में ले गए ....जहाँ मेरी ही तरह के अन्य लोग अपना अपना बिस्तर बिछाए लेटे बैठे थे .
पूरा सिर घुटाए ....सिर पर चुटिया रखे ....मस्तक पर चन्दन लगाए ....धोती कुर्ता पहिन ..प्रतिदिन तीस माला मन्त्र जप करते हुए नौ दिन व्यतीत हुए थे ...कि मेरे पिताश्री का लैंडलाइन फ़ोन कॉल पहुँच गया और मैं वापस लौट आया .कोई आकांक्षा नहीं थी मेरी ..
लेकिन शांतिकुंज से लौटने पर मेरे व्यक्तित्व में ऐसा परिवर्तन आया ....जो न आया होता तो ज्यादा अच्छा होता .मैं इतना ' शरीफ और ईमानदार ' हो गया कि लोग यहाँ तक कि मेरा बाप भी मुझे बेवकूफ और बुड़बक समझने लगे .जिसका असर आज भी कभी कभी दिख जाता है .और अपने इस व्यक्तित्व परिवर्तन का बहुत बड़ा खामियाजा मैंने भुगता लेकिन इस वन वे ट्रैफिक पर वापस लौटने का रास्ता ही नहीं था .
विडंबना देखिए ....आज फिर इतिहास स्वयं को दोहराना चाहता है ...आज मैं फिर वहीं जाना चाहता हूँ ...शायद मेरे जीवन में चल रही समस्याओं का कोई समाधान मिल जाए .........
लेकिन वह पत्नी जो नई नई ससुराल आई थी ..और उस समय मुझे वहां जाने से रोक सकती थी .लेकिन उसने न सिर्फ मुझे भेजा बल्कि मेरी आर्थिक मदद भी की .
वही पत्नी आज शादी के तीस साल बाद ....मुझे अपनी नजरों से दूर नहीं जाने देना चाहती ....शांतिकुंज तो हरगिज नहीं .

Comments

Anil. K. Singh said…
विडम्बना शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं है। कुछ जाता है तो कुछ मिलता भी है। जो गया है वह दिखता है। जो मिलता वह कभी-कभी दिखता नहीं है। जो मिला है उसे ठीक से ढूढे़ । क्या पता कुछ मिल जाये।