मेरी विदेश यात्रा

मित्रों !
मैं जीवन में केवल एक बार विदेश गया ....वो भी बिना पासपोर्ट और वीजा के . वो देश था ' नेपाल ' . मेरे एक रिश्तेदार ' भारत नेपाल बॉर्डर ' के पास रहते थे .उनके घर से ' बॉर्डर ' लगभग पचास किलोमीटर दूर था .उन दिनों हम जब भी मिलते ....अक्सर हालचाल के दौरान वे अपनी अक्सर होने वाली नेपाल यात्रा की तारीफ करते न थकते .वे नेपाल से बहुधा टॉर्च ,कपड़े या कभी कभी शराब ले आते और इधर आ कर बेच देते या इस्तेमाल कर लेते .वे कहते ...
" एक थान कपडा ,दर्जन दो दर्जन टॉर्च या एक पेटी शराब क्यों लाई जाय .....दो पीस कपडा ,दो अदद टॉर्च या दो बोतल शराब लाओ ....कोई कुछ नहीं बोलेगा और अपना खर्चा चलाओ ". मैं उनकी बातें सुन कर समझ गया कि .....ये सिस्टम तो कई बेरोजगारों को रोजगार दे सकता है !!! और ऐसा वास्तव में था भी ....
उस समय मेरी अवस्था पचीस छब्बीस साल रही होगी .उनके इस " नेपाल महात्म्य " से प्रभावित होकर मैने कुछ पैसों की व्यवस्था की और अपनी बाइक के साथ नेपाल जाने का निश्चय किया लेकिन एक से भले दो की तर्ज पर अपने एक बहुत करीबी मित्र को साथ चलने के लिए राजी किया .रास्ता पता नहीं था तो हम बस्ती से डुमरियागंज और वहाँ से बढ़नी बॉर्डर पहुंचे .
यानी जानकारी के अभाव में हमनें लगभग एक सौ सत्तर किलोमीटर की दूरी तय की ......जो शॉर्टकट से सौ किलोमीटर पड़ती .लेकिन बाद में पता चला ये लम्बा रास्ता ही ठीक था क्योंकि शॉर्टकट का रास्ता बहुत ख़राब था .
अंततः बढ़नी बॉर्डर पार करके जैसे ही हमनें "नेपाल"
 में कदम रखा कि " नेपाल पुलिस " नें हमें रोक लिया और "भंसार " दिखाने को कहा .भंसारकुल  यानी चुंगी .मुझे इस बारे में पता ही नहीं था सो मैंने पूछा ...."भैया !ये भंसार क्या होता है ?" वह सिपाही समझ गया कि मैं अनभिज्ञ हूँ और उसने मुझसे बाइक की चाबी मांगी .मुझे आने वाली मुसीबत का पूर्वानुमान हो गया और मैं उसका हाँथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए बगल के "पुलिस बूथ " में घुस गया और पचास का एक नोट उसके हाँथ पर रखते हुए कहा ...." भाई मुझे सच में पता नहीं कि ये भंसार क्या है और ये जरूरी क्यों है ?प्लीज ....मेरी मदद करो ." उसने मुझे बताया और मैं दो सौ मीटर पीछे आया और भंसार बनवा कर वापस लौटा .एक दुकान से हेलमेट किराये पर लिया क्योंकि उस सिपाही के अनुसार वहां दोनों सवारियों के लिए हेलमेट पहनना अनिवार्य था .और फिर हम कृष्णानगर मार्केट पहुंचे .तीन घंटे घूमते रहने पर भी हम ये तथाकथित टॉर्च ,कपड़ा ,दारू या सोना कुछ भी न खरीद सके .
और हम लौट पड़े .अब मैंने सोचा !!!!......जिस रास्ते हम आए थे वह लम्बा था ....पूछता हूँ किसी से कोई
" शॉर्टकट " है ?मैंने गौरा चौकी पहुंचने का रास्ता पूछा .और उस भले आदमी ने मुझे जो रास्ता बताया उसने मुझे " गौराचौकी गोण्डा " के बजाय हमें
" गौराचौकी बलरामपुर " पहुंचा दिया .रास्ता इतना ख़राब जिसका मैं क्या वर्णन करूँ .नदी का कछार ,बांस का पुल ,खेत की मेड़ और ऊबड़खाबड़ कच्चे पक्के रास्ते से हम उतरौला पहुंचे और तब जाकर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ ,तब तक बहुत देर हो चुकी थी .
मरता क्या न करता .....हम लोग उतरौला ,मनकापुर होते हुए 225 किलोमीटर का मुश्किल सफर तै करके रात नौ बजे घर पहुंचे .उस दिन जिंदगी में पहलीबार और आखिरी बार मैंने कुल 400  किलोमीटर का सफर किया और कुछ हाथ नहीं आया .
जिंदगी भी कुछ ऐसी ही कट रही है ....गुनाह बे लज्जत ....!!!

Comments

Anil. K. Singh said…
महोदय,
आप विदेश पलट हो गये। इतना काफी है। खूब भटके लेकिन टहले भी तो। बहुत अच्छा।