जैसे उनके दिन बहुरे !!!

(यह कहानी आंशिक रूप से सत्य है )
एक दिन श्री राम कुमार शास्त्री अपनी पारिवारिक समस्याओं से त्रस्त होकर .....फांसी पर झूल गए .लेकिन समय रहते किसी नें देख लिया और लोगों नें उन्हें बचा लिया .मैं उनका मित्र था ...सो उनकी इच्छानुसार मुझे बुलाया गया और मैं गया .उनकी हालत और मानसिकता को समझते हुए मैं अपने स्तर से समझा बुझा कर वापस आ गया .
शास्त्री जी बहुत अच्छे आदमी थे .किसी प्रकार का कोई व्यसन वे नहीं करते थे और सबसे बड़ी बात वे अपने मित्रों के प्रति बड़े सेवाभावी थे लेकिन बहुत संवेदनशील व्यक्ति थे .और छोटी छोटी बातों को दिल पर ले लेते थे .
खैर वे दो दिन बाद ....मेरे घर आए और अपनी व्यथाकथा सुनाई .....जिसका यहाँ वर्णन करना उचित नहीं होग़ा .मैंने सहानुभूति पूर्वक उनकी बातें सुनीं और मैं समझ गया कि इन महोदय की न तो परिस्थिति ठीक है और न ही मानसिकता ...और इस स्थिति में ये फिर कोई मूर्खतापूर्ण कदम उठा सकते हैं.
मैं कुछ देर सोचता रहा और फिर मैंने चार सौ रूपए अपनी दराज से निकले और उनके हाथ पर रखते हुए कहा ....' जाओ कहीं घूमघाम आओ ,यहाँ से कहीं दूर चले जाओ ....तुम्हारे लिए यही उचित होगा .'
आज से बीस साल पहले चार सौ रूपये ....कीमत रखते थे .शास्त्री जी तुरंत मेरी बात मान गए .
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डी टी सी की बस में बैठे .....रामकुमार शास्त्री जी , दिल्ली की सड़कों की खाक छान रहे थे .उनकी जेब मैं मात्र सौ रूपए बचे थे .और शारीरिक श्रम करने में असमर्थ ....शास्त्री जी कोई " आसान रास्ता " खोज रहे थे .
तभी किसी बस स्टॉप पर एक सस्ती किताबें बेचने वाला एक सेल्समैन चढ़ा .उसके कंधे पर एक बैग टंगा था और एक हाँथ में ...किस्सा तोता मैना ,अकबर बीरबल , जनरल नॉलेज जैसी छोटी छोटी तीन चार किताबें थीं .थोड़ी देर बस के अंदर खड़ा खड़ा चारो तरफ देखता रहा .फिर गला साफ कर बड़े विचित्र और मनोरंजक ढंग से ,अपनी किताबों का प्रचार करने लगा .उस समय स्मार्टफोन का जमाना था नहीं और समय बिताने के लिए लोग अपनी रूचि के अनुसार और जेब के अनुसार ....किताबें पढ़ा करते थे .शास्त्री जी कुछ देर तक उस पुस्तक विक्रेता के हावभाव को ध्यान से देखते रहे और फिर उन्होंने दस रूपए की कोई एक किताब खरीदी ....लेकिन देखा सभी किताबों को .
शास्त्री जी ....किताब के पीछे लिखे ,प्रकाशक के पते पर सीधे 'खारी बावली ' पहुँचे .और प्रकाशक के सामने ...अपनी जेब से सौ रूपए निकाल कर रख दिया और बोले .....सर !यही मेरी पूंजी है और मैं आपकी किताबें बेचना चाहता हूँ .प्रकाशक एक अनुभवी और सुलझा आदमी था .उसने पहले इन्हें बैठाया ...चाय पिलाई और कुरेद कुरेद कर पूछना शुरू किया .थोड़ी देर में ही शास्त्री जी उस प्रकाशक के सामने " मानसिक रूप से " नंगे हो गए .
अंततः उस प्रकाशक नें तीस किताबें देते हुए कहा ..." ये किताबें बेच कर ...दस रूपए प्रति किताब के हिसाब से आप तीन सौ रूपए पायेंगे ...मुझे आप एक सौ पचास रूपए दे कर ...बाकी आप रख लेना .ये सौ रूपए जो आपने मेज पर रखे हैं उन्हें ले लीजिये .अभी आप को इनकी जरूरत है ."
शाम तक विभिन्न बसों में चढ़ते उतरते ....शास्त्री जी नें " बीस किताबें " बेंच लीं और अब उनकी जेब में कुल तीन सौ रुपए थे . प्रकाशक को सौ रूपए देकर वे जब निश्चिंत हुए तब उन्हें बहुत जोर की भूख लगी . सड़क किनारे एक सस्ते होटल में उन्होंने भोजन किया .दस रूपए का एक जूट का बोरा ख़रीदा और " लालकिले " के बगल में बीसियों लोगों के बीच बिछा कर सो गए .सुबह " सुलभ शौचालय " में दो रूपए देकर नित्यक्रियाओं से निवृत हुए और फिर बगल में स्थित एक मंदिर में जाकर पूजापाठ करके पुनः अपने प्रकाशक के पास पहुंचे .उस दिन उन्हें पचास किताबें मिलीं और शाम तक .....शास्त्री जी तीस किताबें बेच चुके थे .
इस तरह दिन बीतते गए ......उस दिन सुबह सुबह शास्त्री जी मंदिर में भगवान के सामने आँख मूंदे बैठे थे और अचानक उनके दिमाग की बत्ती जली .
उस दिन शनिवार था  .सारा दिन बसों में किताबें बेचने के बाद शाम को हिसाब किताब करके वे सीधे सब्जी मंडी गए और मात्र सौ रूपए के नींबू और हरा मिर्चा खरीदा .उनको विशेष तरीके से धागे में गूंथा .एक थाली में दीपक और अगरबत्ती जलाई .थाली को फूलों से सजाया .
अब वे बाजार पहुंचे .एक दुकान के सामने पहुंचे .नींबू मिर्च लटकाई और दुकानदार को चन्दन लगा कर खड़े हो गए .दुकानदार नें उन्हें प्रणाम करते हुए उनकी थाली में दस रूपए डाल दिए .
इस तरह हफ्ते भर तक बसों में घूम घूम कर वे जितना पैसा ....किताबें बेच कर कमाते थे ....उससे ज्यादा पैसा वे शनिवार को नींबू मर्चा लटका कर कमा लेते थे .
एक दिन वे मंदिर में बैठे पूजा कर रहे थे कि तभी भगवान का भेजा कोई बंदा उनके पास आया और पूजा करवाने का आग्रह किया .शास्त्री जी ने इसे सुनहरा अवसर मान कर बड़े मन से विधिविधान के साथ पूजा करवाई . दक्षिणा की बात हुई तो शास्त्री जी ने विनम्रता के साथ कहा ....जो आपकी इच्छा .
यजमान उनकी पूजा ,व्यवहार और विनम्रता से इतना खुश था कि उसने जो दक्षिणा दी .....उसकी शास्त्री जी को आशा ही नहीं थी .
अब श्री रामकुमार शास्त्री जी के पास एक नहीं तीन काम थे .कालांतर में आमदनी बढ़ी तो ....शास्त्री जी पूर्णकालिक पंडिताई ही करने लगे .
आज दिल्ली शहर में श्री रामकुमार शास्त्री जी का एक मंदिर है .अपना घर है .ढेर सारे भक्त और यजमान हैं और वे सपरिवार दिल्ली में स्थापित हो कर एक संतुष्ट और सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं .
जैसे उनके दिन बहुरे ....वैसे ही ......!!!!

Comments

Anil. K. Singh said…
कहानी बहुत पसंद आयी ;ऐसा होता रहता है। मैं चाहता हूं किस्मत सबका साथ दे।
Anil. K. Singh said…
कहानी बहुत पसंद आयी ;ऐसा होता रहता है। मैं चाहता हूं किस्मत सबका साथ दे।