श्रेष्ठता का मापदंड ?

 (मित्रों ! आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखी मेरी ये कहानी पूरी तरह काल्पनिक है .)........
मंजीत सिंह के विशाल बंगले में घुसते ही मुझे भव्यता और अमीरी का स्पष्ट दर्शन हुआ . विशाल लोहे के गेट को पार कर , लाल बजड़ी की सड़क पर चलते हुए मैं उसके घर के ड्राइंग हॉल में दाखिल हुआ .ड्राइंग हॉल में विशाल गोलाकार सोफे पर बैठा मैं चारो तरफ देख रहा था . क्या वर्णन करूँ मैं ....उस भव्यता का जो चारो तरफ बिखरी पड़ी थी .जिस क्राकरी में वर्दीधारी नौकर चाय लेकर आया ....वह क्राकरी भी विदेशी थी जो दिखने मे ही कीमती लगती थी .
मंजीत सिंह मेरे सहपाठी थे .उनके पिता सरबजीत सिंह ...." शराब " के बड़े व्यापारी थे .स्थानीय राजनीति के बड़े खिलाड़ी थे .शहर के मेयर भी रह चुके थे .बहुत सज्जनता और विनम्रता से बात करते थे .....गुस्सा तो जैसे उन्हें आता ही नहीं था .
लेकिन वे सप्ताह में कम से कम दो बार "शराब " का सेवन जरूर करते थे और पी कर सो जाते थे .सिगरेट खूब पीते थे और घर पर " हुक्का " पीने के शौक़ीन थे .आए दिन अखबारों में उनकी " महिलामित्रों " के किस्से नमकमिर्च लगा कर छपा करते थे .लेकिन सिंह साहब इस पर कभी भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे .
उनके पैसे से ...एक स्वयंसेवी संस्था कार्यरत थी .जो ग्रामीण इलाकों में अनगिनत सेवा अभियान चलाती थी .एक अनाथालय ,एक आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित अस्पताल और बहुत सारे प्याऊ चलते थे .अपने कर्मचारियों के लिए वे भगवान थे .किसी भी कर्मचारी की किसी भी छोटी बड़ी समस्या के समाधान के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते थे.
प्रतिमाह वे सपरिवार अनाथालय जाते और हर बच्चे से व्यक्तिगत मिलते थे ....उसकी हर जरूरत पूरी करते थे .
उनके अस्पताल के प्रशासन को ये स्पष्ट निर्देश था किसी भी व्यक्ति के इलाज में पैसा कभी बाधा न बने .
हर दूसरे तीसरे महीने किसी न किसी बहाने उनके आवास पर या किसी बड़े होटल में ....भव्य पार्टी का आयोजन होता था जिसमें उनके पूरे स्टाफ ,अस्पताल प्रशासन और अनाथालय के बच्चों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता था .
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मेरे एक और मित्र थे ...विनय शंकर .उनके घर उस दिन मैं पंहुचा तो मेरा स्वागत उनकी " माता जी " नें किया .उन्हें देखते ही मुझे ऐसा लगा ...जैसे कोई "देवी " हों .उन्हें देख कर मेरा मन श्रद्धा से भर गया .मुझे एक बड़े किचेन में ....लकड़ी के पीढ़े पर बैठाया गया और मेरे सामने एक स्टूल पर सुस्वादु व्यंजनों की थाली परोसी गई .....जब तक मैं भोजन करता रहा .विनय की माता जी वहीं जमीन पर चटाई पर बैठी आग्रह पूर्वक भोजन कराती रहीं .घर के पीछे तीन चार अच्छी प्रजाति की गायें बंधी थीं ....
घर का आंगन कच्चा था ,जो गोबर से लीपा गया था .विशाल आंगन के मध्य में एक ऊँचे गमले में तुलसी का पौधा लगा था ....जहाँ सुबह शाम घी का दीपक जलता था .घर के बाहर एक मंदिर था ......जहाँ दो से तीन पंडितगण प्रतिदिन सुबह से शाम तक पाठ करते रहते थे ..........कुल मिला कर कैसा वातावरण था !इसका अंदाजा आपको बखूबी हो ही गया होगा .
विनय शंकर के पिता जटाशंकर ,बहुत बड़े ठेकेदार थे रेलवे ,सड़क ,रियलस्टेट .....कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जहाँ उनका दखल न हो .वे हमेशा चन्दन लगाए रहते .झक सफेद सूती कुर्ता पैजामा पहनते और शानदार मूंछ रखते थे . सुबह शाम पूजा करते थे .कभी कोई नशा उन्होंने किया ही नहीं .यहाँ तक कि  बीमार होने पर कभी अंग्रेजी दवा नहीं खाते थे ....उन्हें आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा पर पूरा भरोसा था .
लेकिन उन पर हत्या और हत्या के प्रयास के बारह मुक़दमे दर्ज थे .दो बार तीन तीन साल की जेल काट चुके थे और हर बार उन्हें कोर्ट से जमानत मिल जाती थी .पिछले वर्ष दो अल्पवयस्क बालिकाओं नें उन पर बलात्कार का संगीन आरोप लगाया और आरोप सिद्ध होता इसके पहले ही दोनों नें आत्महत्या कर ली ......
जटाशंकर नें विरोधियों पर साजिश रचने का आरोप लगाया और उनके वकीलों नें उन्हें बाइज्जत बरी करा लिया .
सरकारी ठेकों में कई बार उनके माध्यम से बनी इमारतें अधोमानक पाई गईं .....लेकिन ऊँची पहुंच के कारण कोई उन पर हाँथ नहीं डाल सका .पिछले साल ड्रग्स सिंडिकेट के पकड़े जाने पर उनका नाम भी अखबारों में खूब उछला लेकिन कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं था .
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मेरे दो मित्रों के परिवार की ये कहानी आप नें पढ़ी !!!
क्या अंदाजा लगा पाए आप ?
श्री जटाशंकर .....जिन्होंने कभी कोई नशा नहीं किया
.....हमेशा पूजापाठ करते रहते थे ....उनका जीवन वृतांत पढ़ा .
श्री सरबजीत सिंह ....कोई विरला नशा होगा जो उन्होंने नहीं किया .कभी मंदिर नहीं जाते थे ....उनका जीवन वृतांत भी पढ़ा .
इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है ?
आपके उत्तर की प्रतीक्षा करूंगा .......
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Comments

Anil. K. Singh said…
तुलनात्मक रुप में बहुत अच्छी कहानी लिखी गई है। यही सब तो देखने को मिल रहा है। उद्देश्य सफल रहा।