एक साहित्यिक नंगा सच
क्या सरल होना इतना जटिल है !! एक सीधी सपाट सरलता आखिर इतनी जटिलता क्यों ओढ़े है ? वास्तविक सत्य तो सरल ही होता है लेकिन उसका " विश्लेषण " उसे कठिन बना देता है . यदि सत्य सरल न हो .....तो वह सत्य हो ही नहीं सकता .
यह जरूर ज्ञातव्य है कि एक " नंगा सरल सच " बिना किसी हथियार के ....लोगों को आतंकित कर देता है और फिर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी उस " नंगे सच " को अपने अपने हिसाब से कपड़े और आभूषण पहना कर " अपना सच " बताने लगते हैं .
सच बेचारा ...!!!!...इन बनावटी दिखावों में अपने को असहज महसूस करने लगता है और धीरे धीरे एक समय ऐसा भी आता है कि ...सच और झूठ में फर्क करना मुश्किल हो जाता है .
सदियों से ....जब से मनुष्य नें अपने अंदर की सत्यता को प्रकट करने के लिए " भाषा " का प्रयोग करना शुरू किया ....उसी समय से ही
" सत्य को कपड़े पहनाने की परंपरा " शुरू हुई .
" साहित्य " के गुरुजन लगातार नए नए शब्दों की खोज करते चले गए और " बेचारा सत्य " उन में दब कर अपनी " सत्यता " खोता चला गया .......
.................................!!!!!
वास्तविक साहित्य तो वही है जिसे पढ़ कर मन आनंदित और तरंगित हो . लेकिन अब तो सत्य को बनावटी शब्दजाल में ऐसा उलझा दिया गया है कि एक साधारण पढ़ालिखा आदमी और कभी कभी असाधारण भी ....केवल " सत्य के बनावटी जाल " में उलझ कर रह जाता है और पता ही नहीं चलता कि " लिखने वाला " सत्य कह रहा है या अपना " खुद का एजेंडा " सेट करने की कोशिश कर रहा है !
साहित्य तो वह पावन विधा है ,जो व्यक्ति को आनंद और सुख प्रदान करती है . उसके मन मस्तिष्क को हथकड़ी और बेड़ियों से आजाद कर उसे सोचने के लिए उन्मुक्त गगन उपलब्ध कराती है .
जिस साहित्य का " लक्ष्य " भटकाव हो वह साहित्य नहीं हो सकता . साहित्य और भाषा तो हमें एक सुनिश्चित लक्ष्य देती हैं ....एक विहंगम दृष्टि देती हैं .
यह जरूर ज्ञातव्य है कि एक " नंगा सरल सच " बिना किसी हथियार के ....लोगों को आतंकित कर देता है और फिर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी उस " नंगे सच " को अपने अपने हिसाब से कपड़े और आभूषण पहना कर " अपना सच " बताने लगते हैं .
सच बेचारा ...!!!!...इन बनावटी दिखावों में अपने को असहज महसूस करने लगता है और धीरे धीरे एक समय ऐसा भी आता है कि ...सच और झूठ में फर्क करना मुश्किल हो जाता है .
सदियों से ....जब से मनुष्य नें अपने अंदर की सत्यता को प्रकट करने के लिए " भाषा " का प्रयोग करना शुरू किया ....उसी समय से ही
" सत्य को कपड़े पहनाने की परंपरा " शुरू हुई .
" साहित्य " के गुरुजन लगातार नए नए शब्दों की खोज करते चले गए और " बेचारा सत्य " उन में दब कर अपनी " सत्यता " खोता चला गया .......
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वास्तविक साहित्य तो वही है जिसे पढ़ कर मन आनंदित और तरंगित हो . लेकिन अब तो सत्य को बनावटी शब्दजाल में ऐसा उलझा दिया गया है कि एक साधारण पढ़ालिखा आदमी और कभी कभी असाधारण भी ....केवल " सत्य के बनावटी जाल " में उलझ कर रह जाता है और पता ही नहीं चलता कि " लिखने वाला " सत्य कह रहा है या अपना " खुद का एजेंडा " सेट करने की कोशिश कर रहा है !
साहित्य तो वह पावन विधा है ,जो व्यक्ति को आनंद और सुख प्रदान करती है . उसके मन मस्तिष्क को हथकड़ी और बेड़ियों से आजाद कर उसे सोचने के लिए उन्मुक्त गगन उपलब्ध कराती है .
जिस साहित्य का " लक्ष्य " भटकाव हो वह साहित्य नहीं हो सकता . साहित्य और भाषा तो हमें एक सुनिश्चित लक्ष्य देती हैं ....एक विहंगम दृष्टि देती हैं .
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