उल्टा कटोरा

कहते हैं ...स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी इतने           " भावुक " थे कि इस भावुकता नें उन्हें अतिसय
"सरल " बना दिया था .
' दक्षिणेश्वर ' की काली जी को वे जब भोग लगाते तो माता स्वयं उनके हाँथ से भोजन गृहण करती थीं . आज भी माता वहीं विराजमान हैं लेकिन अब वे साक्षात भोजन नहीं करतीं क्योंकि "रामकृष्ण " अब सशरीर नहीं हैं .
तो क्या मान लें कि " रामकृष्ण " वास्तव में अब नहीं हैं ? ' पुनर्जन्म ' की अवधारणा केवल ' सनातन धर्म ' में ही है . लेकिन पूरे विश्व में मरणोत्तर जीवन की खोज जारी है . इसके समर्थन में इतने जीवंत प्रमाण मिले हैं कि जिन्हें नकारना लगभग असंभव है .
जीसस को मरे दो हजार साल बीत गए परंतु अब भी वे जीवित हैं ....इस बात के अकाट्य प्रमाण उपलब्ध हैं .
एक प्रमाण तो यही है कि एक बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी 'सत्य की खोज ' में 'ईसाई धर्म ' की साधना कर रहे थे . छह महीने में उन्होंने " जीसस " से इतनी प्रगाढ़ आत्मीयता स्थापित कर ली कि एक दिन जीसस की साक्षात दिव्य मूर्ति उनके सम्मुख उपस्थित हुई और उनके शरीर में समाहित हो गई . क्या साधना रही होगी ? कैसी विलक्षण रही होगी वह अनुभूति ...जब जीसस उनमें समाये होंगे !!! 
यह सब लिखते हुए मुझे अपने साथ घटी एक विलक्षण घटना याद आ गई . बात सन 1990 की है .
मैं " शांतिकुंज हरिद्वार " गया था . पहली बार नौ दिवसीय संजीवनी साधना सत्र के दौरान मंच पर उदबोधन के क्रम में ....मैने सुना कि " आप अपना पूर्व अर्जित ज्ञान यहीं छोड़ दें और बच्चे बन जायें 
तो आप के भीतर का उल्टा कटोरा ....सीधा हो जायेगा और जो भी अनुदान बरसेगा ....कटोरे में लबालब भर जायेगा .
मैंने इसे आदेश और अध्यात्म की पहली सीढ़ी समझ आत्मसात किया . मैं भीतर से खुद को बच्चा समझने लगा और बीस साल का नवयुवक मानसिक रूप से एक शिशु बनने लगा . पूरे नौ दिन यह स्थिति बनी रही और घर लौटने के बाद धीरे धीरे मैं पुनः सामान्य हुआ .
उस दौरान के विलक्षण अनुभवों का मैं वर्णन नहीं कर सकता . इस नाते नहीं कि वे कोई गोपनीय अनुभव हैं बल्कि इस नाते कि उनका वर्णन " "अलौकिक " है .उसके लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं कि मैं वर्णन कर सकूँ !!!
 बहुत दिनों के बाद .....अभी सात आठ साल पहले मेरे हाँथ एक पुस्तक लगी . जिसके वक्ता थे मूर्धन्य सन्यासी " स्वामी रामसुख दास जी महाराज " और पुस्तक थी ...." साधक संजीवनी " और जिसके प्रकाशक थे " गीताप्रेस गोरखपुर ".
इस पुस्तक के एक अध्याय " वर्णनातीत का वर्णन " अर्थात जिसका वर्णन न किया जा सके उसका वर्णन .....को पढ़ने के बाद मेरे वे प्रश्न उत्तरित हो गए जो इस पुस्तक को पढ़ने के बाइस साल पूर्व मन में उठे थे .वे सवाल जो 22 साल पहले पैदा हुए उनका जवाब 22 साल बाद मिला .
इसके बाद मैंने वो किया जो " स्वामी जी " ने बताया ......आतंरिक अनुभवों को प्रगाढ़ करने की साधना " चुप साधना " ....जिसे कबीर नें " सहज साधना बताया है . इसका अनियमित अभ्यास करते करते बहुत दिन बीत गए . 
सारे जवाब मन में हैं लेकिन प्रकट कैसे करूँ ? शायद मेरी स्थिति आप समझ पा रहे हों ???

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