जिन्दा मुरदा !!

(प्रस्तुत कहानी सांकेतिक शब्दों में लिखी एक 
' कल्पना ' है . किसी भी व्यक्ति अथवा स्थान विशेष से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है .)
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वो दोनों घुटनों में मुँह छिपाए उस बियाबान में बैठे अपने आप में गुम थे . उनका मन करता बुक्का फाड़ कर रोयें ....चिल्ला चिल्ला कर रोयें  . रो लेते तो शायद मन कुछ हल्का हो जाता लेकिन रोना चाहते हुए भी वे रो नहीं पा रहे थे .
दिल तो रो रहा था ...लेकिन आंखे पानी गिराने से मना करती थीं . उनका जी करता ....कहीं जा कर डूब मरें या फंदे से लटक जायें या गाड़ी के नीचे कट मरें .....जिंदगी मानों बोझ बन गई थी .

एक तो वैसे ही अच्छीभली जग़ह छोड़ यहाँ उजाड़ और उजड्डों के बीच आ फंसे ...दूसरे ऐसा करने के लिए बाध्य करने वाले भी उनकी बात तक नहीं सुनते . कहाँ तक और किस किस बात पर वे अपना सिर धुनें ....!!
नई नई शादी हुई तो अपनी सत्रह बरस की मेहरिया से वे बहुत खुश थे . बड़ी होशियार थी और उसने ताक़ीद भी किया ....लेकिन उन पर तो जैसे किसी नें जादू टोना कर दिया था . सब कुछ जानने समझने के बाद भी ...उसकी बात पर कान न दिया .....और अब पछता रहे हैं . धीरे धीरे जैसा कि इस फ़ानी दुनिया से सब कुछ गुज़र जाता है ....वक़्त भी गुज़रता गया . शादी के पांच बरस गुजर गए ....अब उनकी मेहरिया दिन ब दिन कटखनी होती जाती थी ...
शुरुआती दिनों में जब वे उसके साथ सोते तो वो उन्हें अकल्पनीय परमसुख देती ...लेकिन इधर पांच सात बरस में ही ऐसा कुछ हो गया कि उन्हें गृहस्थी के बवाल , परिवार की कलह और अनिश्चित भविष्य नें ...इस तरह टुकड़ो में बांटा कि वे जब भी ' उसके ' साथ हमबिस्तर होते तो उनके अंदर के कई टुकड़े बाहर निकल कर उनके ' दिमाग़ ' में ' दस्तक़ ' देते रहते और वे पराजित होकर ....उसके ऊपर से उतर ...बगल में दूसरी तरफ़ मुँह घुमा लेते और वो ' बिना कपड़ों ' में लेटे लेटे उन्हें पुचकारती दुलराती लेकिन वे लज्जा के मारे दूसरी तरफ़ मुँह छुपाए रहते ...

आखिर ऐसा कब तक चलता ....और उनकी मेहरिया नें उन्हें वो वो गालियाँ दी ...ऐसे ऐसे ताने दिये ...ऐसी चुभती बातें कहीं कि वे बेचारे पदार्थ से परमाणु बन गए . अब तो उनके इतने टुकड़े हो चुके थे कि इन परमाणुओं का भी विखंडन होना चाहता था .
अंदर का ये दुःख ....किसी से बता भी तो न पाते थे . शर्म संकोच का ऐसा पाथर सीने पर बोझ बन के रखा था ...जो न उतारा जा सकता न ढोया जा सकता .

भला हो ' मेडिकल साइंस ' का और उन मेडिकल स्टोर वालों का जो बिना परचे के दवा दे देते ......
अब वे ' उसकी इच्छा ' पूरे उत्साह से पूरी करते और वो ऐसी भूखी शेरनी बन जाती मानो उसे बहुत दिनों से कोई शिकार न मिला हो ...वो ऐसी खुश रहती मानों मन मांगी मुराद पूरी हो गई हो ..
लेकिन मन की न होने पर उसने जो जो ताने उलाहने वा मानसिक दुख दिये थे ....उन्हें वे भूल न पाते थे .
अब जब उसके ताने उलाहने बंद हुए तो जिंदगी नें उन्हें वही ताने उलाहने देने शुरू किये .उसके मन की तो ...' मेडिकल स्टोर की दवाओं ' नें पूरी कर दी ...लेकिन " जिंदगी " के मन की ....कौन मेडिकल स्टोर पूरी करता ?
मन का जी न पाए तो जिंदगी का फ़ायदा क्या ?
उनकी डायरी के एक पन्ने पर उन्होंने लिखा ...
" जिंदा हूँ इस कदर की ग़मे जिंदगी नहीं !
जलता हुआ दिया हूँ ...मगर रोशनी नहीं !!" 
पता नहीं ये लिखने के पीछे ...उनके मन में क्या रहा होगा ? 
एक दिन उन्होंने लिखा ...." मरने का ऐसा कौन सा तरीक़ा है ...जो कम से कम तक़लीफ़ दे ?" 
वे मरना चाहते थे !!!  लेकिन उसकी मोहब्बत में जिये जा रहे थे ....लेकिन जब वो " कटखनी " होती तो मरने की चाहत करने लगते .
आधे जिन्दा आधे मुर्दा वो किसी को संतुष्ट न कर पाए .

आधे मर्द और और आधी औरत को लोग "अर्धनारीश्वर " कहते हैं और उसकी पूजा करते हैं लेकिन आधे जिन्दा और आधे मुरदा को लोग क्या कहते हैं ? किताबों में ढूढ़ा कोई शब्द न मिला ...कोई परिभाषा न मिली ...कोई हल (?) न मिला !!
आपको पता है ...आधे जिंदा आधे मुरदा को क्या कहते हैं ?


Comments

Anil. K. Singh said…
कहानी अच्छी है। अच्छे चिर्तो व्दारा सजाया गया है। कहानी अच्छी है।