वो बेशकीमती हीरा (भाग - 4 )

गतांक से आगे ----
मुट्ठी में ' हीरा 'दबाए और दूसरे हाथ में बैग लिए 'लाला रामरतन जौहरी ' गंगा के किनारे पहुंचे .
लेकिन हीरा फेंक नहीं पाए और मन ही मन बोले ..
....'इस अधनंगे भिखारी को क्या पता इस हीरे की कीमत क्या है ?अरे !मैं " जौहरी "हूँ ,यह बेशकीमती हीरा तो दुनिया में दूसरा होगा भी या नहीं .कैसे फेंक  दूँ ?न फेकूं तो घर लौटना .....नहीं नहीं ये तो नहीं हो सकता .फिर क्या करूँ ? फेंक ही दूँ आखिर क्या करूंगा इसका ? ...फेंकू ....न फेंकू ...फेंकू ...न फेंकू ....." इसी उधेड़ बुन में गंगा के किनारे चलते चलते
लालाजी 'हरिद्वार 'जा पहुँचे .
एक किसान अपने बैलों के साथ खेत जोतता मिला .लालाजी वहीं एक पेड़ के नीचे बैठ गए .फिर कुछ सोच कर किसान से बोले ....भाई ! क्या यहाँ खेत बिकाऊ है .किसान रुखाई से बोला ...पैसे हों तो खेत क्या सब कुछ बिकाऊ है .
अब लाला रामरतन जौहरी के अंदर का व्यापारी फिर से जाग गया था और लाला सीधे जौहरी बाजार पहुँचे .बातचीत में निपुण ,शुद्ध व्यापारी बन कर जब उन्होंने व्यापारियों से बात शुरू की तो लाला के व्यावसायिक कौशल के सामने सभी नतमस्तक हो गए .आखिर में दिल्ली से बड़ा व्यापारी आया और ...वो "बेशकीमती हीरा" बिक गया .लालाजी के पास अपार धन आया .और फिर लाला जी ने गंगा के बाढ़ इलाके से थोड़ा दूर बहुत सारी जमीन खरीदी और एक 
" भव्य मंदिर " का निर्माण शुरू हुआ .पैसा हो तो सबकुछ संभव है .
और कुछ ही समय में 'लाला राम रतन जौहरी ' का भव्य और विशाल मन्दिर बन कर तैयार हो गया .सारी सुख सुविधाओं से युक्त धर्मशाला भी
बन गई . कई कर्मचारी नियुक्त हो गए और एक पंडित जी आकर्षक वेतन पर मंदिर में तीनों समय पूजा अर्चना करने लगे .
और लाला राम रतन जौहरी ....लम्बी सफ़ेद दाढ़ी 
और सफ़ेद चोंगा उस पर गले में आकर्षक और अजीबोगरीब रंगबिरंगी मालाएँ पहने गद्दी पर विराजमान हुए ....पीठाधीश्वर महन्त फलां फलां 
बन कर .
और एक दिन राजस्थान का एक बड़ा व्यापारी 
तीर्थाटन करता हुआ उसी मंदिर में जा पहुंचा .
दौलतमंद था लेकिन उसके कोई संतान नहीं थी .
थका हुआ था मंदिर का शांत वातावरण .......
...संगमरमर का ठंडा फर्श ,गर्मी का मौसम और 
कूलर की हवा पाकर वहीं बरामदे में लेट गया और गहरी नींद में सो गया .जब उसकी आँख खुली तो सीधे सामने भगवान की भव्य मूर्ति के दर्शन हुए .
जाने किस अंतःप्रेरणा से वह बुदबुदाया ...." हे !ईश्वर ..तूने मुझे सब कुछ दिया .अब एक संतान दे दे .बस यही मांगता हूँ .यह कह कर उसने प्रतिज्ञा की कि यदि उसे संतान की प्राप्ति हो गई तो वह इस मंदिर के कलश को सोने से मढ़वा देगा और भगवान को सोने का छत्र अर्पित करेगा ." 
ईश्वर की कृपा हुई या कहिए समय आ गया .उस मारवाड़ी व्यापारी को ठीक डेढ वर्ष पश्चात पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई .और अपना संकल्प सिद्ध 
करने वह व्यापारी फिर से उस मंदिर में उपस्थित हुआ .
लालाजी जो अब महन्त जी कहलाते थे ,के सामने पहुँच कर उसने अपना संकल्प व्यक्त किया .और महन्त जी ने संकल्प पूर्ण करने की आज्ञा दे दी .फिर क्या था ....वो सब होने लगा जो व्यापारी चाहता था .
इस घटना की चर्चा आग की तरह फैल गई कि ...
......फलां मंदिर सोने से मढ़ा जा रहा है .और जो कुछ भी उस मंदिर में जाकर इच्छा की जाए वो अवश्य पूर्ण होती है .
कुछ सही कुछ गलत लोगों ने मंदिर को इतना प्रचारित किया कि मंदिर में भक्तों की भीड़ उमड़ी पड़ती थी .इतना चढ़ावा आने लगा कि मंदिर को ट्रस्ट बनाकर तमाम कर्मचारी नियुक्त करने पड़े और सिक्कों को गिनने के बजाय तौला जाने लगा .यहाँ तक कि स्थानीय प्रशासन को मंदिर और महंत की सुरक्षा में सिक्योरिटी गार्ड्स नियुक्त करने पड़े .
और लाला रामरतन जौहरी उर्फ़ महामण्डलेश्वर पीठाधीश्वर फलां फलां .......शानदार कीमती गाड़ियों के काफिले के साथ और सुरक्षा कर्मियों के संरक्षण में चलने लगे .
अंततः एक दिन .........
अगली अंतिम किश्त में .........
क्रमशः जारी .........

Comments

Anil. K. Singh said…
कहानी काफी आकर्षक है। मजा आ रहा है।