मेरी साहित्यिक यात्रा : क ख ग से कॉमिक्स तक

मित्रों , आपने अब तक इस साहित्य यात्रा में मेरे बचपन का ककहरा पढ़ा .
जब बाबू जी कथा बाचने जाते तो मैं भी जाता था और मेरा काम था शंख बजाना .श्री स्कन्द पुराणे रेवा खण्डे श्री सत्यनारायण व्रत कथायाम प्रथमोध्यायः , बोलो श्री वृन्दावन विहारी लाल की जय और इस जयकारे के साथ मिली लम्बी शंख ध्वनि आज भी लगता है कल की बात है .



एक दिन मेरे पापा शहर से गाँव आए अक्सर आते रहते थे . वे मुझे और मेरी अम्माँ को लेकर एक महानगर में पहुंचे और मेरा वातावरण अचानक बदल गया .मैं पहली बार ड्रेस पहन कर और रिक्शे पर बैठ कर एक बड़ी इमारत में जिसे स्कूल कहते थे पढ़ने गया .लकड़ी की तख्ती और खड़िया पीछे छूट गई .
मेरा शैक्षिक आधार मजबूत था .इसकारण मैं कक्षा में अग्रिम पंक्ति का विद्यार्थी  माना जाने लगा और मेरा दो कमरे का घर मेरी सबसे प्रिय जगह बनने लगा .जब मैं थोड़ा पढ़ने लायक हुआ तो सबसे पहले जो चीज मेरे हाथ में आई वो थी मेरी किताबें .कहानियों का शौक तो पहले से था लेकिन मेरा शौक पूरा करने वाले तो गांव में ही रह गए .
बाहर की पढ़ने लायक जो चीज सामने आई वो था रोज घर में आने वाला ' दैनिक जागरण ' उसमें मैं पढ़ता क्या ? पापा कभी कभी लाइब्रेरी जाते सो मैं भी साथ जाने लगा .उस लाइब्रेरी के दो सुन्दर हरे शीशे के पारदर्शी पेपरवेट आज भी मेरे घर में लुढ़क रहे हैं .पहले मैं इनसे खेला और फिर पढाई की मेज पर ये बहुत दिनों तक रखे रह गए और मेरे साथ साथ चलते चलते ये इतने दूर आ गए कि अब मेरा पाँच साल का बच्चा इनसे खेल रहा है .उस लाइब्रेरी में मुझे तमाम पढ़ने लायक पुस्तकें ,मासिक  साप्ताहिक पत्र पत्रिकाएँ और अख़बार आदि तो दिख जाते थे लेकिन अभी मैं इतना बड़ा नहीं था कि मैं उन्हें समझ पाता .
मैं वहाँ कॉमिक्स ,चंपक ,नंदन ,पराग ,चंदामामा आदि बच्चों की किताबें खोजता रहता था और अगर मिल गई तो उसे निचोड़ कर ही दम लेता था .इससे मेरी भूख शान्त नहीं होती थी क्योंकि एक तो हमेशा मेरे मतलब की चीज मुझे मिलती नहीं थी , दूसरे केवल रविवार को ही मैं ये काम कर सकता था .इस प्रकार दिन बीत रहे थे .उस समय मनोरंजन के नाम पर केवल दो ही साधन मुख्य थे हमारे परिवेश में .
एक तो किताबें और दूसरा रेडियो .किताबों के रूप में साप्ताहिक ,मासिक पत्र पत्रिकाएँ और उपन्यास जो मैं न पढ़ने लायक था और न ही समझने .
रही बात रेडियो की तो सुबह जब मेरी आँख खुलती तो एक जानीपहचानी आवाज मुझे रोज़ सुनाई देती ...
' ये आकाशवाणी की विविधभारती सेवा का कानपुर केंद्र है .सुबह के .........बज रहे हैं .प्रस्तुत है ........
इस प्रकार ये रेडियो अक्सर सुबह से शाम तक बजता  रहता था .शाम को चार घंटे बंद रहने के बाद पौने नौ बजे समाचार सुनने के लिए खुलता और हवामहल ,बिनाका गीतमाला और छायागीत सुनाकर बंद हो जाता .जो आनंद उस समय ये रेडियो देता था वह आनंद आज सैकड़ो चैनल वाला एल ई डी भी नहीं दे पाता .
मैं कक्षा तीन पास कर चुका था .मेरे अगल बगल भी मेरी ही उम्र के कुछ बच्चे थे उनके पास भी कॉमिक्स होते थे जिन्हे पढ़ने के लिए मैं लालाइत रहता था .एक दिन पापा जी ने मुझे शब्जी लेने भेज दिया .मैं पाँच रूपए और एक झोला लेकर बाजार गया .बताया  गया सामान लेने के बाद मेरे पास पचहत्तर पैसे बचे .मैं लाला की दुकान से समोसा खाना चाहता था और मैं दुकान पर पहुँचा .तभी मेरी निगाह सड़क के दूसरी ओर स्थित एक किताबों की दुकान पर पड़ी .समोसा खाने का कार्यक्रम स्थगित कर मैं किताबों की दुकान पर पहुंचा तो पता लगा कि वह तो एक प्राइवेट लाइब्रेरी है जहाँ किताबें ,उपन्यास और बच्चों की किताबें और ......कॉमिक्स भी किराए पर मिलते हैं .
मेरी पसंद के सारे कॉमिक्स ...फैंटम ,चाचा चौधरी , 
लम्बू मोटू और जाने कितने मेरे मानसिक संसार के परिजन वहां मौजूद थे .मेरी लार टपकने लगी .मैं सीधा दुकानदार के सामने पहुँचा और पुछा ..किराए पर देते हो ? वो बोला हाँ .एक रूपए एडवांस जमा और कॉमिक्स का दस पैसे रोज़ .और अगर यहीं बैठ कर पढ़ लूं तो ........तो किराया देना पड़ेगा .मैंने अपनी पसंद की एक कॉमिक्स ली और उसमें डूब गया .दो कॉमिक्स पढ़ कर और बीस पैसे किराया दे कर और समोसा भी खाकर मैं घर लौटा .
पापा कॉलोनी में लगे एक ऊँचे बिजली के खम्भे के नीचे चद्दर बिछा कर अपने चार दोस्तों के साथ बैठे ताश खेल रहे थे .मैंने अम्मा को शब्जी का झोला पकड़ाया और अपने दोस्तों को ये बताने भागा कि मैंने आज कौन सी कॉमिक्स पढ़ी .
धीरे धीरे कॉमिक्स की दुनिया से आगे बढ़ कर हिंदी की प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाएँ जैसे धर्मयुग ,सरिता ,कादम्बिनी ,चम्पक ,नंदन ,पराग ,चंदामामा आदि मेरे प्रतिदिन के मनोरंजन और  ज्ञान वर्धन के साधन बनते गए और बचपन से निकल कर मैंने किशोरावस्था में प्रवेश किया .


Comments

Anil. K. Singh said…
आप ने अपना पूरा बचपन हमें समझा दिया। बहुत अच्छा।