एक साहित्यिक यात्रा :बचपन का ककहरा

(मित्रों! ये संस्मरण मेरी आत्मकथा है और पूर्णतः सत्य है .इस कथा में वर्णित प्रत्येक व्यक्ति का मुझसे सीधा सम्बन्ध है . इसमें लिखे हर शब्द का मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ .)
रात का समय था .घर के बरामदे में मैं अपने बाबू जी के साथ सोया था .मुझे जोर से पेशाब लगी .बाबूजी ने मुझे खटिया से उठा कर बरामदे से थोड़ा बाहर खड़ा कर दिया और मेरी हाफ निक्कर नीचे खिसका दी .शायद जाड़े का मौसम जा रहा था और गर्मी शुरू होने वाली थी .मौसम 
सुहाना था .चांदनी रात थी लेकिन चांदनी मद्धिम थी .तभी पेशाब करते करते मेरी नजर आसमान 
की ओर उठी ......मैंने देखा रक्त लाल चन्द्रमा , शायद ग्रहण लगा था .ये दृश्य मैंने पहले कभी नहीं देखा था और मैं डर कर जोर से चीखा .बाबूजी तत्काल उठे और मुझे गोद में लेकर सहलाने लगे उनके मुँह से मंत्रोच्चारण की मद्धिम ध्वनि निकलने लगी .जब मैं शांत हो गया और तन्द्रा में जाने लगा तब वे मुझे गोद में उठाये मुख्यद्वार पर पहुंचे और दरवाजे की सांकल खटखटाई .कुछ देर में हाँथ में मिट्टी के तेल की ढिबरी लिए मेरी अम्मां ने आकर दरवाजा खोला .
बाबूजी बोले ....' भइया गरहन देखि के डराय गए हैं .सोवै वाले हैं ,अकेल न राखिउ ' . माता को चिंतित देख बोले ....सब ठीक है ,घबराए की बात कौनो नहीं है .माता ये शब्द सुन कर आश्वस्त हो गईं .
मेरे बाबूजी संस्कृत भाषा के विद्वान थे,ज्योतिर्विद और जाने माने पुरोहित थे .अक्सर कथा भागवत सुनाने जाया करते थे .मस्तक पर मलयागिरि चन्दन का लेप ,मस्तक के बीच श्री की लाल बिंदी लम्बी चोटी ,लम्बा कद ,गेहुँआ रंग और सूती सफ़ेद कुर्ता धोती .यह था उनका वाह्य व्यक्तित्व 
मैं प्रतिदिन बाबूजी के साथ ही सोता था लेकिन सुबह आँख अम्मा की गोद में खुलती थी .मैं उस समय माँ का दूध पीता था उम्र रही होगी तीन या चार साल .लेकिन जो कुछ भी मैं लिख रहा हूं अक्षरसः सत्य है और मुझे याद है .
प्रतिदिन बाबूजी की थाली में उनके साथ ही मैं भोजन करता था .कहानी सुनने का मुझे बहुत शौक था इस कारण मैं भोजनोपरांत उनकी चारपाई पर चला जाता था .मैं उनके हाथपैर दबाते हुए कहानियाँ सुनता रहता जब तक मैं सो नहीं जाता .बाबूजी के पास कहानियों का भंडार था .इसी क्रम में मेरे अक्षर ज्ञान की शुरुआत हुई और फिर मुझे पता नहीं चला कि कब मुझे संस्कृत के अनेक श्लोक ,हिंदी वर्णमाला ,गिनती ,पहाड़े आदि याद हो गए .एक दिन बाबूजी मेरे लिए एक लकड़ी की तख्ती लेकर आए फिर लकड़ी के कोयले को पीस कर उसमे पानी मिलाकर पेस्ट बनाया गया और तख्ती का लेपन किया गया फिर काँच की शीशी से रगड़ रगड़ कर उसे चमकीला बनाया गया .और फिर खड़िया मिट्टी से लिखने का मेरा प्रशिक्षण शुरू हुआ .
मैंने गांव की प्रथिमिक पाठशाला में जाना शुरू किया .मैं मोटा ताजा स्वस्थ और दबंग किश्म का बच्चा था .सो आए दिन मारपीट की शिकायतें घर पर पहुँचने लगीं .वह लकड़ी की तख्ती लिखने से अधिक हथियार के रूप में प्रयोग की जाने लगी .मेरा बचपन आनंद से बीत रहा था .


Comments

Anil. K. Singh said…
आप ने हमें भी बचपन की याद दिला दिया। हम भूल गये थे कि हम भी बच्चे रह चुके हैं। बहुत अच्छा।
Unknown said…
The child story