हिन्दी साहित्य के मक़बरे

 अपने ही जैसे कुछ सजातीय जीवों की खोज में मैं इंटरनेट की खाक छान रहा था और इस प्रयास में मैंने कुछ मशहूर ब्लॉगर्स के ब्लॉग पढ़े .कुछ को पढ़ कर तो संतोष हुआ कि चलो हमारे जैसे और भी जीव हैं
इस पृथ्वी पर .लेकिन अधिकांश को पढ़ कर तो मैं बहुत निराश हुआ .हिन्दी में लिखते हैं और हिन्दी की ही आलोचना करते हैं .ब्लॉग की भाषा का भी कोई स्तर नहीं ....तकनीकी ज्ञान पर आधारित ब्लॉग्स की बात कुछ अलग है लेकिन साहित्यिक ब्लॉग !!.....
...उनकी कहानियां ,लेख केवल प्रेम सम्बन्ध ,स्त्री विमर्श और शारीरिक सम्बन्धों पर ही आधारित होने चाहिए क्या ? दूसरी बात ....मैं मानता हूं कि कालांतर में अन्य भाषाओँ के शब्द हिन्दी ही नहीं अन्य भाषाओं नें भी अंगीकार किए हैं ...लेकिन उन विभाषी शब्दों की लिपि कम से कम देवनागरी तो होनी ही चाहिए .एक उदाहरण देखिए .....' आज मैं history के subject पर कुछ बात करना चाहता हूँ .' ये क्या बात हुई ? history को इतिहास और subject को विषय लिखने में क्या जाता है ?फिर भी लिखना ही पड़े तो इसे हिस्ट्री और सब्जेक्ट तो लिख ही सकते हैं ये कैसी भाषा है ? हिन्दी की इतनी दुर्गति क्यों करते हो भाई ? और ये उन ब्लॉगर्स की भाषा है जो लाखों कमाते हैं .मैं जानबूझ कर उन्हें नंगा नहीं करना चाहता और न ही उनकी आलोचना मेरा उद्देश्य है .
कुछ ब्लॉगर्स है जो स्वयंभू प्रकाशक बन बैठे हैं .कहीं की ईंट,कहीं का रोड़ा लेकर " हिन्दी साहित्य का मकबरा "तैयार करते हैं .केवल पैसे कमाना और ..येन केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करना और कुछ भी छाप देना ही उनका काम है .
एक लेखक के वचन थे ...." जब लोग शुद्ध हिंदी में बोलते नहीं ..तो बोलचाल की हिंदी में ही लिखा जाना चाहिए ." क्या मतलब है ? अभी कल मैं एन सी ई आर टी की नौवीं कक्षा की हिन्दी की पुस्तक पढ़ रहा था .....कम से कम उस स्तर की भाषा यदि नौवीं कक्षा का विद्यार्थी पढ़ और समझ सकता है तो साहित्यिक अभिरुचि रखने वाला पाठक क्यों नहीं समझ सकता?
सरल और सीधा जवाब है ...या तो आप लिखना नहीं चाहते या हिन्दी पर आपकी ही पकड़ काफी ढीली है .
प्रारम्भ से ही साहित्यिक भाषा और बोलचाल की भाषा में अंतर रहा है .यदि भाषा का इतिहास पढ़ेंगे तो जान जायेंगे .......क्या जयशंकर प्रसाद ,
महादेवी वर्मा ,प्रेमचंद के समय में वह हिन्दी बोली जाती थी .....जो उन्होंने लिखी है ? सोचिए ...!!!
आपकी ये बहानेबाजी नहीं चलेगी और न ही ये तर्कपूर्ण है .
मैं दुःखी हूँ कि इन लेखकों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी .जाने किस भाषा में ये सोचते हैं !!! और जिस भाषा में सोचते हैं ..क्या उसे उसी प्रकार लिख देते हैं ?
साफ लगता है ...उपभोक्तावाद के इस युग में सस्ती लोकप्रियता भुनाना ही एकमात्र लक्ष्य है .
जिस प्रकार संकर बीज से उत्पन्न और ऊपर से थोपे गए रासायनिक उर्वरकों के फलस्वरूप गेहूँ 
धान की विराट पैदावार हो रही है और उनके आगे देसी खाद और देसी मड़ुआ ,सावां और जौ और मोटे अनाज से उपभोक्ताओं का मोहभंग हो गया 
उसी प्रकार इन संकर लेखकों के बनावटी लेखन के कारण ...साहित्यिक हिन्दी से ..पाठकों का मोह भंग होने लगा है .
लेकिन जिस प्रकार ' सुपर मॉल ' में ये मोटे अनाज जो प्राकृतिक खाद से तैयार होते हैं ...
..."  सुपर फूड " कह कर दस से बीस गुणी अधिक कीमत पर बिकते हैं और लोग इन्हे ख़रीदते भी हैं .उसी प्रकार शुद्ध हिन्दी साहित्य के लेखकों के भी दिन बहुरने वाले हैं .
इन संकर प्रजाति के लेखकों से दस बीस गुना अधिक कमाएंगे ये शुद्ध देसी लेखक ...जो आज भी समझौते के मूड में नहीं हैं .और जो आज भी अपने मस्तिष्क के खेत में शुद्ध विचारों के बीज और सकारात्मक सोच की खाद के साथ तैयार 
साहित्य को जन जन तक पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील हैं . 


Comments

Anil. K. Singh said…
आप ने बहुत अच्छी तरह धोया है। उम्मीद है कुछ. सुधार होगा।
Anil. K. Singh said…
आप ने बहुत अच्छी तरह धोया है। उम्मीद है कुछ सुधार होगा।