उस पत्र में क्या लिखा था ? (प्रथम भाग )

लगभग दो हजार वर्ष पूर्व की घटना है ..........
एक वेदपाठी और पौरोहित्य का का कार्य करने वाले पंडित जी थे .उनकी पुत्री विवाह योग्य हो गई थी किन्तु पंडित के कान पर जूं न रेंगती थी .पंडित जी की पत्नी किसी राजगुरु की इकलौती पुत्री थीं और पंडितजी की प्रकांड विद्वता और ज्ञान से प्रभावित होकर उन राजगुरु नें अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया था .
परन्तु भाग्य प्रबल होता है ...अनासक्त पंडित जी 
पौरोहित्य कर्म से इतना कमा ही नहीं पाते थे कि 
परिवार की आवश्यकताएँ पूरी हो सकें ..दूसरी ओर राजगुरु की कन्या होने के कारण ,मायके में प्राप्त राजसी सुख को याद करके ....पंडित जी की पत्नी अपने पतिदेव को पानी पी पी कर गालियाँ देती रहती थी .बेचारे पंडित जी सब कुछ अपना भाग्य समझ सह लेते थे .पंडित जी के मौन के कारण उनकी स्त्री और अधिक क्रोधित हो जाती थी .....
और एक दिन ...पानी सिर के ऊपर चला गया और  उनकी पत्नी नें उन्हें एक तरह से घर से निकालते हुए कहा ..." पुत्री विवाह योग्य हो चुकी है और मैं अपने पिता की तरह मूर्ख नहीं जो तुम्हारे जैसे किसी दरिद्र और मूर्ख के साथ अपनी पुत्री का विवाह होने दूंगी .जाओ जाकर कुछ कमाओ .".......
पंडितजी को कथा बांचने के अलावा कुछ आता नहीं था ..कथा कहते कहते वे उसमें इतने लीन हो जाते कि उन्हें सुध नहीं रहती थी कि यजमान की मनः स्थिति क्या है ?एक घड़ी की कथा को कहते कहते वे उसमें अपना इतना ज्ञान बघार देते कि कथा कहते कहते कई घड़ियाँ और पहर बीत जाते ...और यजमान कान पकड़ लेता कि अब इनसे कथा नहीं सुनूंगा ........पंडितजी को लोग 
विद्वान और ज्ञानी तो मानते थे और उनका सम्मान भी करते थे ...लेकिन उनके पास नहीं बैठते कि अभी ये कोई उपदेश देना शुरू कर देंगे .
और पंडित के तथाकथित ग्राहक लगातार कम होते जाते थे .....
....तो पंडिताइन की भयंकर फटकार के कारण और अपने ही घर से बाहर निकाले जाने के कारण पंडित दुःखी मन से एक दिशा की ओर चल दिये .उनका मन और मस्तिष्क उन्हें लगातार समझा रहे थे ..सब कुछ माया है और इस माया से प्रभावित होना अज्ञान है ...आदि आदि .लेकिन पत्नी के कटुवचन उनके समस्त ज्ञान विज्ञान पर हावी हो गए थे .
अंततः जाने कब तक विचार मग्न चलते चलते पंडित जी एक जंगल के किनारे स्थित एक सरोवर के समीप पहुँच गए .अपने लोटे में सरोवर का स्वच्छ जल भर कर ..उसे पीकर वे वहीँ एक पेड़ के नीचे बैठ कर ..अपनी स्थिति पर विचार करने लगे .और विचार करते करते कोई मार्ग न पाकर वे रोने लगे .वहाँ कोई उनका अरण्यरोदन सुनने वाला नहीं था और वे रोते रहे ...विलाप करते रहे .अब तक का सारा मन का दुःख जो वे छिपा कर बैठे थे ..आंसुओं की धारा में परिवर्तित हो गया था .



और उस समय मानों " भगवान " नें उनकी पुकार सुन ली .कहीं से विचरण करते हुए " प्रख्यात योगी गुरू गोरखनाथ जी " वहाँ पहुंचे .एक ब्राह्मण को इस तरह विलाप करते देख उन्होंने पूछा ..क्यों रोता है ?
साक्षात गुरु गोरखनाथ को सामने देख ...पंडित उनके चरणों में गिर पड़े .और अपनी सारी कथा उन्होंने गुरू जी को सुना दी .गुरु जी नें उनकी कथा बड़े ध्यान से सुनी और पंडित जी को अपनी गुफा में ले गए .तब वे केवल इतना बोले ....तो तुम्हें धन चाहिए ? पंडित जी ने सहमति में सिर हिलाया ....गुरू जी बोले ...तो ठीक है ...ये कुछ फल हैं ,पहले तुम इनका सेवन करो .पंडित जी भूखे थे और ढेर सारे भांति भांति के फल देख उनकी भूख जाग गई और सब कुछ भूल वे फल खाने लगे .तृप्त होकर जब उन्होंने सिर उठाया तो ..
गुरूजी उनके सामने हाँथ में एक पत्र लिए खड़े थे .पत्र को लपेट कर उन्होंने उस पर " लाख " से एक मोहर लगाई और बोले .....मैं ये पत्र एक चेतावनी के साथ देता हूँ कि किसी भी स्थिति में इस पत्र को खोलना नहीं और कदापि इसे स्वयं न पढ़ना अब तुम तुरंत इसे लेकर ..........
क्रमशः जारी ...........

Comments

Anil. K. Singh said…
आगे कुछ आकर्षक है।
Anil. K. Singh said…
आगे कुछ आकर्षक है।
Saras Pandey said…
Aage ki Katha ko padhne ki ichcha jagrit hoti hai