उस पत्र में क्या लिखा था ?(द्वितीय भाग )

गतांक से आगे ...
गुरूजी ने पत्र को लपेट कर उसपर ' लाख ' से मुहर लगाई और बोले ....तुम उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट महाराज विक्रमादित्य को यह पत्र देना .लेकिन मैं तुम्हे चेतावनी देता हूँ कि किसी भी स्थिति में यह पत्र खोल कर स्वयं न पढ़ना .अब जाओ ..वहाँ तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी .
ऐसा विशुद्ध आश्वासन पाकर वो पंडित खुशी खुशी उज्जैन की ओर चल पड़ा .
दोपहर से सायंकाल हो गया औरचलते चलते रात्रि के प्रथम प्रहर में पंडित जी ..उज्जैन नगरी के राजमहल के  सिंहद्वार पर पहुंचे .द्वारपाल नें उन्हें रोका और परिचय




देने को कहा तो पंडित जी नें वही पत्र उसे दिखाया ." योगिराज महागुरु " की व्यक्तिगत मुहर देख ....उसने तत्काल द्वार खोल दिए और आदर सहित अंदर आने को कहा .पंडित जी इस प्रकार महल तक पहुंचे ..सिंह द्वार से राजमहल तक उन्हें जिसने भी रोका ...पत्र देख मार्ग छोड़ दिया .अंततः पंडित ..महाराज के शयनकक्ष के द्वार पर पहुंच गए .
राजा रानी कक्ष में विश्राम कर रहे थे और सैनिक वेश में एक स्त्री वहाँ तैनात थी .उसने कड़क कर पंडितजी को रोका और उन्होंने वह पत्र दिखाया .महिलासैनिक
ने उन्हें नमस्कार किया और कुछ देर ठहरने का आग्रह किया और " पत्र " लेकर शयनकक्ष में प्रवेश कर गई .
कुछ ही समय में स्वयं सम्राट विक्रमादित्य ..पंडित जी के सामने हाथ जोड़े खड़े थे .उन्होंने तुरंत महामंत्री को उपस्थित होने का आदेश दिया और पंडित को एक ऊँचे आसन पर बैठा कर स्वयं नीचे आसन पर बैठ गए और कुशल क्षेम पूछने लगे ..
पंडित जी हतप्रभ थे .
रात्रि में इस तरह बुलाने पर ..भागते हुए महामंत्री नें प्रवेश किया और बोले ...महाराज की जय हो !
आदेश दीजिए !! 
महाराज नें कहा ...' महामंत्री जी !आप इन पंडित जी को अतिथिशाला में ले जाइए ..इनके भोजन और विश्राम की सर्वोत्तम व्यवस्था कर तत्काल उपस्थित हों .' 
जो आज्ञा महाराज !...कह कर महामंत्री जी नें पंडितजी से अपने साथ चलने का आग्रह किया .
......................
जीवन में प्रथम बार पंडितजी ..मखमली गद्दे पर लेटे और भरपेट दिव्य राजसी भोजन कर उन्हें थकान से नींद तो आ रही थी लेकिन वे सो नहीं पा रहे थे और करवट बदल रहे थे .राम राम करते आख़िरकार वे सो गए .
प्रातःकाल उन्हें दो अनिंद्य सुंदरियों नें बड़े प्रेम से जगाया तो पंडितजी चिहुँक कर उठ बैठे और चारो तरफ देखने लगे .एक युवती नें पंडितजी से निवेदन किया ...आदरणीय ! कृपया स्नानगृह में पधारें .पंडितजी नित्यक्रिया से निवृत्त हो कर स्नानगृह में गए तो वहां हल्के गरम पानी से भरा एक विशाल बर्तन था जिसमें से मनमोहक सुगंध आ रही थी .भाँति भाँति के उबटन सोने चांदी के पात्रों में रखे थे .उन दोनों सुंदरियों नें पंडितजी का हाथ पकड़ कर स्नान कराना चाहा तो उन्होंने झटके से हांथ छुड़ाकर हाँथ जोड़ लिये और कहा ....' देवियों !मैं स्वयं स्नान कर लूँगा .आप बाहर जायें .' 
स्नान कर धोती लपेटे पंडित जी बाहर निकले तो हाथों में राजसी वस्त्र लिए वही युवतियाँ फिर उपस्थित हुईं और वस्त्र धारण करवाने का आग्रह किया .पंडित जी नें नहीं में सिर हिलाते हुए कहा 
...जैसा वस्त्र मैं पहिन कर आया था ..वैसा ही चाहिए ..और फिर पंडित वस्त्र धारण कर ..पूजापाठ में लगे .दिव्य स्वल्पाहार किया .....
और महामंत्री जी नें कक्ष में प्रवेश किया और बड़े आदर और सम्मान से उन्हें प्रणाम किया.पंडितजी उन्हें आशीर्वाद देकर प्रश्नसूचक नेत्रों से देखने लगे ...महामंत्रीजी बोले ...' हे ब्राह्मणदेव ! हमारे राजाधिराज सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ...राजदरबार में आपकी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं .देशदेशान्तर से बुलाए गए और रात ही रात में यहाँ पहुँचे कई जनपदों के प्रमुख भी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं .
पंडित जी को कुछ समझ में नहीं आया लेकिन वे इतना जरूर समझ गए कि उन्हें आज कुछ विशेष मिलेगा और उनके कष्ट दूर हो जायेंगे .....
फिर क्या हुआ ?
क्रमशः जारी ......(कल अंतिम भाग में )









Comments

Anil. K. Singh said…
यह किसी दूसरे सुदामा की कहानी लग रही है। इस कहानी से पूर्णतया अपिचित हूं।