अंदर की आवाज : किसी की कोई सुनता क्यों नहीं

मित्रों , एक बार मैं एक सत्संग कार्यक्रम में शामिल हुआ . एक ऊँचा भव्य मंच बना था .गेट से लेकर पंडाल तक लाखों की भव्य सजावट थी . बिजली की सजावट मन मोह लेती थी . बाहर तमाम मॅहगी मॅहगी गाड़ियां खड़ी थी और गेट के बगल में एक लाइन से भिखारी अपनी झोली फैलाए बैठे थे . गेट से लेकर अंदर जहाँ तक नजर जाती थी रास्ते के दोनों तरफ थोड़ी थोड़ी दूर पर दर्जनों दानपात्र रखे थे . अंदर बैठने के स्थान पर सत्संग सुनने आए चार लोग कुर्सी के लिए झगड़ रहे थे बात सिर्फ इतनी थी कि एक साहब कुर्सी पर रूमाल रख कर लघुशंका यानी पेशाब करने चले गए और लौटने पर किसी और को कुर्सी पर बैठा पाया . पहले आग्रह किया फिर जबरदस्ती .और जब अहंकार टकराया तो जूतमपैजार होने लगी और कुर्सी के झगड़े में कुर्सियां टूटने लगी .पुलिस आई सबको पकड़ पकड़ कर लाठियाते हुए बाहर निकाला
मित्रों, इस प्रकार के कार्यक्रमों में ऐसे द्रश्य अक्सर देखने को मिल जाते हैं .
आज दुनिया में प्रतिदिन ऐसे सैकड़ो हजारों सत्संग कार्यक्रम ,कथा प्रवचन और धार्मिक कार्यक्रम होते हैं ,लाखों लोग प्रतिदिन इनमे शामिल होते हैं ,फिर भी लोगों में और उनके जीवन में कोई परिवर्तन क्यों नहीं होता ? इसका कारण है जो वक्ता प्रवचन कर रहा है ,वह जो कह रहा है उसे स्वयं ही नहीं मानता . इसीलिए उसकी बातों का कोई प्रभाव भी नहीं होता .हम स्वयं ' सिगरेट ' पीते हुए अगर लोगों को बतायें कि ' सिगरेट ' पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है . तो हमारी बात कोई कैसे मानेगा ?
मैं एक बार एक प्रसिद्ध मंदिर में दर्शन करने गया . वह कोई साधारण मंदिर नहीं था सनातन धर्म के चारो धामों में से एक धाम था . बड़ी भीड़ थी . मैं बड़ी देर से लाइन में खड़ा सोच रहा था अब क्या करुँ . तभी एक पंडित जी अचानक मेरे पास आये और बोले - दर्शन करना है ? मेरे ' हाँ ' कहने पर बोले - सौ रूपये लगेंगे . मैं भीड़ में पिस रहा था . तुरंत कहा - दो सौ दूंगा . वे मुझे जाने किन किन गलियों और रास्तों से घुमाते हुए लेकर गए और सीधा ' भगवान ' के सामने ले जा कर खड़ा कर दिया . बड़े विधिविधान से पूजा करवाई और आशीर्वाद दिया . ' सुविधाशुल्क ' का ऐसा परिणाम देख मैं आश्चर्यचकित था . सोच रहा था क्या ' भगवान ' के दरबार में भी रिश्वत चलती है ? यदि मैं ' रिश्वत ' दे कर भगवान के दर्शन करता हूँ तो अवसर मिलने पर क्या स्वयं ' रिश्वत ' नहीं लूँगा ?
एक ईमानदार ,सच्चा किन्तु गरीब आदमी श्रद्धा के साथ मात्र ग्यारह रूपये का प्रसाद लेकर मंदिर जाता है . पुजारी प्रसाद चढाने की एवज में इक्यावन रूपये चढ़ावे की मांग करता है और जब वह गरीब असमर्थता व्यक्त करता है तो उसे हिकारत भरी नजरों से देखता हुआ मना कर देता है .
वहीं एक माना हुआ बेईमान , झूठा ,मक्कार किन्तु अमीर आदमी एक हजार रूपये का प्रसाद और कमल के फूल की माला लेकर जाता है और पुजारी को दो हजार रुपये चढ़ावा देता है . पुजारी हाथ जोड़ कर उसका स्वागत करता है और सबको पीछे कर बड़े विधिविधान और मंत्रोच्चार के साथ पूजा संपन्न करवाता है . उसके हावभाव से लगता है कि उसका बस चले तो भगवान के स्थान पर उस आदमी को बैठा दे . यह घटना मैंने स्वयं देखी है .
ऐसा लगभग मंदिरों में होता है . अब ऐसे मंदिर , मठ , महंत और पुजारी समाज पर क्या प्रभाव डाल पायेंगे ' ,वे व्यक्तियों और समाज में क्या सकारात्मक बदलाव ला पायेंगे ? आप स्वयं समझ सकते हैं .
अंततः जब तक हम स्वयं अपनी अंतरआत्मा की आवाज , अपने अंदर की आवाज को नहीं सुनेंगे और अपने विवेक का आदर नहीं करेंगे . कोई भी व्यक्ति चाहे वह घर का हो या बाहर का न ही हमारी बात मानेगा और न ही हमारा आदर करेगा . और धार्मिक पाखंड का परचम इसी तरह लहराता रहेगा . समाज और व्यक्तियों में कभी कोई परिवर्तन नहीं होगा .

Comments

Anil. K. Singh said…
Her jages yehi ho raha hai