मनवा बे परवाह

मित्रों , कभी कभी कोई कारण न होते हुए भी एक अनाम उदासी सी छा जाती है , सोचता हूँ क्या ये सब के साथ होता है ?कल मेरे घर बड़ी भीड़ भाड़ थी . सुबह से शाम तक पत्नी को किचेन से छुटटी नहीं मिली . आने वाले आज सुबह तक चले गए . मैं न चाहते हुए भी दुनियादारी के चक्कर में फॅसा रहा .
इधर माता जी लगातार पेट की समस्या की शिकायत करती रही . बेटी को दूसरा चश्मा चाहिए . दूसरे बच्चे को ये चाहिए , किसी को वो चाहिए . कोई नहीं पूछता मुझे क्या चाहिए ?
मैं अगर खुद से सवाल पूछूं कि मुझे क्या चाहिये . तो मुझे भी उत्तर नहीं मिलता कि वास्तव में मुझे क्या चाहिए ? क्या जो जो चाह मन में पैदा होती है वो अगर सब पूरी हो जाय तो क्या नई चाह पैदा नहीं होगी ?
गहराई में उतरो तो पता चलता है कि ये चाहतें तो कभी पूरी होती ही नहीं ,एक के पीछे एक इच्छा आती रहती है .
कबीर कहते हैं -
चाह गई चिंता मिटी मनवा बे परवाह .
जा को कछु न चाहिए , वो शाहन को शाह ..
यानी जिसे कुछ नहीं चाहिए वह " राजाओं का भी राजा होता है " .
लेकिन समस्या तो ये है कि अपने लिए न सही दूसरों के लिए चाहिए . ' मनवा बे परवाह ' कैसे हो ?
बेटी एक मिनट स्कूल से आने मेँ लेट हो जाय .......
सारा ' ज्ञान और बे परवाही'  हवा हो जाती है .ज्ञान ध्यान की बड़ी बड़ी बातें दूर खड़ी हो कर अपना आस्तित्व तलाश करने लगती हैं .फिर ........
अब आप ही बताइये ?

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