बच्चे का बुखार और चश्मे की डंडी

मित्रों ! कल सुबह जैसे ही मैं घूम घाम कर घर लौटा तो देखा मेरे पाँच साल के बच्चे को बहुत तेज बुखार था . कल से ही उसे बुखार की दवा दी जा रही थी . लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था . बुखार से हांफते अपने पुत्र का सिर अपनी गोद में रख कर मैंने उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखनी शुरू की और छोटी बेटी से उसके पैर के तलवों को नीचे से ऊपर की ओर तह किये रूमाल से मार्जन करने को कहा . घबराया हुआ मैं मन ही मन ' महामृत्युंजय मंत्र ' का जप करता हुआ पट्टियां रखता गया और कुछ देर बाद बुखार उतर गया . मन को शांति मिली तो मैं नहा धो कर नाश्ता करके डॉक्टर के पास गया और दवाएं लेकर घर पहुंचा तब तक साढ़े दस बज चुके थे .
रविवार था सो बच्चो की छुट्टी थी और घर में धमाचौकड़ी मची थी . बीवी , बच्चों पर चिल्ला रही थी .इस दृश्य का आनंद लेना अब मुझे आ गया है वरना तो मैं भी इस चिल्लपों में शामिल हो जाया करता था .
इसी बीच मेरी बड़ी बेटी मेरे पास आई और बोली - मैं तीन दिन से अपने चश्मे की टूटी डंडी को फेवीक्विक से जोड़ कर काम चला रही हूँ फिर भी वो बारबार निकल जाती है .मुझे अभी चश्मा चाहिए . उसकी भावनाओं को समझ मैंने सिर हिलाया और जा कर बरामदे में बैठ गया . जेब में जो कुछ था दवा में खर्च
हो चुका था . चश्मे की समस्या अब मेरे लिए ' कश्मीर की समस्या ' बन चुकी थी .बड़ी उम्मीद से बीवी की ओर देखा तो वह मुँह फेर कर बड़बड़ाने लगी . मेरी बेटी से मेरा हार्दिक लगाव है सो जब वो फिर मेरे सामने आई तो मैं सवालिया नजरों से उसे देखने लगा .वो बिना कुछ बोले घर के अंदर गई और जाने कहाँ से पाँच सौ का नोट ला कर मेरे हाँथ पर रख दिया .
फिर हम दोनों चश्मा बनवाने निकले .घर से चार किलोमीटर दूर चश्मे की दुकान पर पहुँचे तो वो खटारा दुकान बंद मिली . इसी बीच मेरे ब्रांडेड जूते का तल्ला निकल गया और ज़ोरदार बारिश शुरू हो गई . बगल में मोची की दुकान थी . उसकी दुकान में पानी भर रहा था . मैंने अपनी समस्या बताई तो उसने बड़ी निष्ठुरता से मना कर दिया . मेरे अनुनय विनय करने पर उसने अपने औजार निकाले और खड़े खड़े ही जुगाड़ कर दिया . मैंने धन्यवाद देते हुए उसे दस रूपये दिए .
बारिश बंद हुई और मैं वहां से पंद्रह किलोमीटर दूर तहसील स्तर की बाजार में पहुँचा . तब मुझे याद आया आज तो इतवार है और आज बाज़ार बंद है .मुझे अपने आप पर इतना गुस्सा आया कि मन किया अपना सिर फोड़ लूं . एक दुकान मिली तो उसका मालिक ही गायब मिला .
मैं चश्मा चश्मा सोचता सीधे हाईवे पर पहुंचा और सोच लिया कि चाहे जितनी दूर जाना पड़े चश्मा तो बनेगा . लगभग छह किलोमीटर आगे एक बाजार आया . उम्मीद तो नहीं थी लेकिन एक नाई की दुकान पर एक सज्जन ने बताया ............!!
और चश्मा बन गया . हम बाप बेटी हँसते खेलते सुबह 11 बजे के चले शाम 5 बजे बारिश का सामना करते हुए चालीस किलोमीटर गाड़ी चला कर सिर्फ चश्मे में डंडी लगवा कर घर पहुँचे . और पत्नी के अग्निबाणों को वीरता पूर्वक सहते हुए सामना किया .








  


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