एक आस अभी बाकी है !!
मित्रों , मैं लिखता तो हूँ ' हैप्पी अरुण ' के नाम से और ब्लॉग का शीर्षक भी है ' खुश रहो ' .खूब लिखा है सकारात्मक सोच और अवसाद पर लेकिन मैंने अनुभव किया है कि दूसरों को समझाना आसान है और शायद लोग समझ भी जाते हैं लेकिन स्वयं को समझाना बहुत कठिन है .और आज मैं खुश नहीं हूँ .मुझे अपने ' हैप्पी फलां ' नाम से भी चिढ़ हो रही है .जो कुछ आज मुझ पर बीता उसे लिखने के लिए मुझे घटनाओं को अपने मन में फिर से दोहराना पड़ेगा और अगर मैंने ऐसा किया तो मुझे डर है कि कहीं ये चीजें मेरे अवचेतन में न चली जाएं और मैं कहीं डिप्रेशन में न चला जाऊं . ऐसा मेरे साथ हो भी चूका है . मित्रों दवाओं के साइड इफेक्ट की तरह ' कहानी का साइड इफेक्ट ' भी बहुत खतरनाक होता है अगर कहानी , कहानी न होके आत्मकथा हो .
बड़ी मुश्किल से मैंने अपने आप को कुछ लिखने के लिए तैयार किया है .लगभग उन्नीस साल की उम्र में मैंने एक कविता लिखी थी जो कभी प्रकाशित न हुई वही कविता यहाँ लिख रहा हूँ ........
याद आती है ऐसे ,जैसे ' पतझड़ ' में ' बसंत ' की !
और ' तपन ' में ' सावन ' की !!
' आस ' है ऐसी जैसे मृग को ' मारीचिका ' से !
और मरुभूमि में जल की .
ऐसी होगी हालत मेरी
दौडूँगा दिनकर के पीछे
समझ चाँद , अंधा हो जाऊँगा ,
मर जाऊंगा ऐसे ,जैसे आस में मर जाता है मृग !
' मारीचिका ' की !!
..................
......लिख तो दी थी यह कविता मैंने उस कच्ची उम्र में लेकिन कैसे और क्यों नहीं मालूम .शायद उस उम्र में यह एक तुकबंदी रही हो और मैं गहराई से इसका अर्थ भी न समझ पाया होऊं .लेकिन आज दुःख की गहराइयों में गोते लगाते समय अचानक यह कविता याद आ गई और इतने वर्ष बीत जाने के बाद इसका वास्तविक अर्थ भी समझ आ गया .
डर लगता है सोच कर कि कहीं ये कविता मेरे अवचेतन की ' भविष्यवाणी ' तो नहीं . कहीं रेगिस्तान में पानी की तलाश में मारीचिका के पीछे भटकते हिरन की तरह और पपीहे के सामान चाँद समझ सूरज की तरफ दौड़ने की तरह ,मैं भी तो नहीं भटक रहा . कही मेरा स्वप्न एक मृगमारीचिका तो नहीं .
..............................
यही सोच कर खुद को समझा रहा हूँ कि -
-मिल गया " समंदर " फिर भी " प्यास " बाकी है !
खारे पानी से न बुझेगी ,
" तलाश " बाकी है !!
तपती दोपहरी में चातक की आँखे ,
लगी हैं नीले आसमान पर ,
" एक आस अभी बाकी है "
.
बड़ी मुश्किल से मैंने अपने आप को कुछ लिखने के लिए तैयार किया है .लगभग उन्नीस साल की उम्र में मैंने एक कविता लिखी थी जो कभी प्रकाशित न हुई वही कविता यहाँ लिख रहा हूँ ........
याद आती है ऐसे ,जैसे ' पतझड़ ' में ' बसंत ' की !
और ' तपन ' में ' सावन ' की !!
' आस ' है ऐसी जैसे मृग को ' मारीचिका ' से !
और मरुभूमि में जल की .
ऐसी होगी हालत मेरी
दौडूँगा दिनकर के पीछे
समझ चाँद , अंधा हो जाऊँगा ,
मर जाऊंगा ऐसे ,जैसे आस में मर जाता है मृग !
' मारीचिका ' की !!
..................
......लिख तो दी थी यह कविता मैंने उस कच्ची उम्र में लेकिन कैसे और क्यों नहीं मालूम .शायद उस उम्र में यह एक तुकबंदी रही हो और मैं गहराई से इसका अर्थ भी न समझ पाया होऊं .लेकिन आज दुःख की गहराइयों में गोते लगाते समय अचानक यह कविता याद आ गई और इतने वर्ष बीत जाने के बाद इसका वास्तविक अर्थ भी समझ आ गया .
डर लगता है सोच कर कि कहीं ये कविता मेरे अवचेतन की ' भविष्यवाणी ' तो नहीं . कहीं रेगिस्तान में पानी की तलाश में मारीचिका के पीछे भटकते हिरन की तरह और पपीहे के सामान चाँद समझ सूरज की तरफ दौड़ने की तरह ,मैं भी तो नहीं भटक रहा . कही मेरा स्वप्न एक मृगमारीचिका तो नहीं .
..............................
यही सोच कर खुद को समझा रहा हूँ कि -
-मिल गया " समंदर " फिर भी " प्यास " बाकी है !
खारे पानी से न बुझेगी ,
" तलाश " बाकी है !!
तपती दोपहरी में चातक की आँखे ,
लगी हैं नीले आसमान पर ,
" एक आस अभी बाकी है "
.
Comments